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लेखिका डाॅ (सुश्री) शरद सिंह से शोधार्थी सपना नेगी द्वारा लिया गया साक्षात्कार

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Dr (Miss) Sharad Singh, Author, Novelist and Social Activist 

प्रिय ब्लाॅग पाठको, आज मैं आपसे यहां अपना एक साक्षात्कार साझा कर रही हूं जिसे एक शोधार्थी द्वारा मुझसे लिया गया है। आशा है कि मेरे ब्लाॅग पाठक इस साक्षात्कार के माध्यम से मेरी सृजनयात्रा से परिचित हो सकेंगे। 


उपन्यासकारडाॅ (सुश्री) शरद सिंह से शोधार्थी सपना नेगी द्वारा लिया गया साक्षात्कार



1. आपने लिखना कब से प्रारंभ किया? क्या आप पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण लेखन की ओर प्रवृत्त हुई?


बचपन से ही लेखन कार्य कर रही हूं। मुझे लेखन की प्रेरणा मिली अपनी मां डॉ. विद्यावती ‘मालविका’ से, जो स्वयं सुविख्यात साहित्यकार रहीं हैं। मेरी दीदी डॉ. वर्षा सिंहजो गजल विधा की सुपरिचित हस्ताक्षर हैं। मैं बचपन में मां और दीदी दोनों की रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते देखती और सोचती कि किसी दिन मेरी रचनाएं भी कहीं प्रकाशित हों। इस संदर्भ में रोचक प्रसंग यह है कि उस समय मैं कक्षा आठ में पढ़ती थी। मैंने अपनी पहली रचना मां और दीदी को बिना बताए, उनसे छिपा कर वाराणसी से प्रकाशित होने वाले समाचारपत्र दैनिक ‘‘आज’’ में छपने के लिए भेज दी। कुछ दिन बाद जब वह रचना प्रकाशित हो गई और वह अंक मां ने देखा तो वे चकित रह गईं। यद्यपि उनसे कहीं अधिक मैं चकित रह गई थी। उस समय मुझे आशा नहीं थी कि मेरी पहली रचना बिना ‘सखेद वापसी’ के प्रकाशित हो जाएगी। आज इस प्रसंग के बारे में सोचती हूं तो लगता है कि उस समय जो भी साहित्य संपादक थे उनके हृदय में साहित्यिक-नवांकुरों को प्रोत्साहित करने की भावना अवश्य रही होगी। शेष प्रेरणा जीवन के अनुभवों से ही मिलती गई और आज भी मिलती रहती है जो विभिन्न कथानकों के रूप में मेरी कलम के माध्यम से सामने आती रहती है।

Dr Sharad Singh with her mother Dr Vidyawati Malavika

Dr Sharad Singh with her elder sister Dr Varsha Singh


24 जुलाई 1977 को मेरी पहली कहानी दैनिक जागरण के रीवा (म.प्र.) संस्करण में प्रकाशित हुई थी जिसका शीर्षक था ‘भिखारिन’। भाषा-शैली की दृष्टि से कच्ची सी कहानी। उस समय मेरी आयु 14 वर्ष थी। कविताएं, नवगीत, व्यंग्य, रिपोर्ताज, बहुत कुछ लिखती रही मैं अपनी लेखन यात्रा में। उम्र बढ़ने के साथ जीवन को देखने का मेरा दृष्टिकोण बदला, अपने छात्र जीवन में कुछ समय मैंने संवाददाता के रूप में पत्रकारिता भी की। उस दौरन में मुझे ग्रामीण जीवन को बहुत निकट से देखने का अवसर मिला। मैंने महसूस किया कि शहरों की अपेक्षा गांवों में स्त्रियों का जीवन बहुत कठिन है।

स्त्री विमर्श संबंधी मेरी पहली प्रकाशित कहानी - ‘काला चांद’ थी, जो जबलपुर (म.प्र.) से प्रकाशित होने वाले समाचारपत्र दैनिक नवीन दुनिया, के ‘नारीनिकुंज’ परिशिष्ट में 28 अप्रैल 1983 को प्रकाशित हुई थी। इस परिशिष्ट का संपादन वरिष्ठ साहित्यकार राजकुमार ‘सुमित्र’ किया करते थे। राष्ट्रीय स्तर पर मेरी प्रथम चर्चित कहानी ‘गीला अंधेरा’ थी। जो मई 1996 में भारतीय भाषा परिषद् कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘‘वागर्थ’’ में प्रकाशित हुई थी। उस समय ‘वागर्थ’ के संपादक प्रभाकर श्रोत्रिय थे।

सच्चे अर्थों में मैं अपनी पहली कहानी ‘गीला अंधेरा’ को मानती हूं। यह कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘वागर्थ’ के मई 1996 अंक में प्रकाशित हुई थी। ‘गीला अंधेरा’ को मैं अपनी ‘डेब्यू स्टोरी’ भी कह सकती हूं। यह एक ऐसी ग्रामीण स्त्री की कहानी है जो सरपंच तो चुन ली जाती है लेकिन उसके सारे अधिकार उसकी पति की मुट्ठी में रहते हैं। स्त्रियों के विरुद्ध होने वाले अपराध को देख कर वह कसमसाती है। उसका पति उसे कोई भी कदम उठाने से रोकता है, धमकाता है लेकिन अंततः वह एक निर्णय लेती है आंसुओं से भीगे गीले अंधेरे के बीच। इस कहानी में बुंदेलखंड का परिदृश्य और बुंदेली बोली के संवाद हैं।


मेरी इस पहली कहानी ने मुझे ग्रामीण, अनपढ़ स्त्रियों के दुख-कष्टों के करीब लाया। शायद यहीं से मेरे स्त्रीविमर्श लेखन की यात्रा भी शुरू हुई। अपने उपन्यासों ‘पिछले पन्ने की औरतें’, ‘पचकौड़ी’ और ‘कस्बाई सिमोन’ की नींव में ‘गीला अंधेरा’ कहानी को ही पाती हूं। दरअसल, मैं यथार्थवादी लेखन में विश्वास रखती हूं और अपने आस-पास मौजूद जीवन से ही कथानकों को चुनती हूं, विशेषरूप से स्त्री जीवन से जुड़े हुए।


2. स्त्री-विमर्श को लेकर चलने वाले समकालीन लेखन पर आपके क्या विचार हैं? इस दृष्टि से आपका प्रिय लेखक? आपकी नजर में स्त्री-विमर्शकारों ने क्या कुछ ऐसा छोड़ दिया है, जिस पर लिखा जाना चाहिए?


स्त्री विमर्श, स्त्री मुक्ति, नारीवादी आंदोलन आदि किसी भी दिशा से विचार किया जाए इन सभी के मूल में एक ही चिन्तन दृष्टिगत होता है, स्त्री के अस्तित्व को उसके मौलिक रूप में स्थापित करना। स्त्री विमर्श को ले कर कभी-कभी यह भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि इसमें पुरुष को पीछे छोड़ कर उससे आगे निकल जाने का प्रयास है किन्तु ‘विमर्श’ तो चिन्तन का ही एक रूप है जिसके अंतर्गत किसी भी विषय की गहन पड़ताल कर के उसकी अच्छाई और बुराई दोनों पक्ष उजागर किए जाते हैं जिससे विचारों को सही रूप में ग्रहण करने में सुविधा हो सके। स्त्री विमर्श के अंतर्गत  भी यही सब हो रहा है। समाज में स्त्री के स्थान पर चिन्तन, स्त्री के अधिकारों पर चिन्तन, स्त्री की आर्थिक अवस्थाओं पर चिन्तन तथा स्त्री की मानसिक एवं शारीरिक अवस्थाओं पर चिन्तन - इन तमाम चिन्तनों के द्वारा पुरुष के समकक्ष स्त्री को उसकी सम्पूर्ण गरिमा के साथ स्थायित्व प्रदान करने का विचार ही स्त्री विमर्श है। प्राचीन ग्रंथ इस बात के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं कि वैदिक युग में समाज में स्त्री का विशेष स्थान था। उन्हंे यह अधिकार था कि वे शिक्षा प्राप्त कर सकें, उन्हें यह भी अधिकार था कि वे अविवाहित रह कर अध्ययन एवं आत्मोत्थान के प्रति समर्पित जीवन व्यतीत कर सकें, उन्हें अधिकार था कि वे पुरुषों के समान कार्य करती हुई उन्हीं की भांति सम्मान पा सकें, उन्हें चिकित्सा, नक्षत्र विज्ञान तथा मार्शल आर्ट पढ़ने-सीखने का भी अधिकार था। स्त्रियों के संदर्भ में इतिहास का मध्ययुग वह क्षेाभनीय युग था जब विदेशी आक्रांताओं ने देश पर आक्रमण किया और उनके द्वारा अपमानित किए जाने के भय से स्त्रियों को घरों में ‘बंदी’ बना दिया गया। उनके अधिकार एक-एक कर के छीन लिए गए, उनकी मनुष्य रूपी स्वतंत्रता के पंख काट दिए गए। सामाजिक जीवन में स्त्रियों की सहभागिता वास्तविक कम और प्रदर्शनीय अधिक रह गई। यहीं से उनके आर्थिक  एवं शैक्षिक अधिकारों का हनन आरम्भ हुआ। किन्तु ब्रिटिश शासन के अंतर्गत ही स्त्रियों को बराबरी के अधिकार दिए जाने के प्रयास शुरू किए गए। राजा राममोहन राय, ऐनी बेसेन्ट, सरोजनी नायडू, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, महात्मा फुले  आदि ने स्त्रियों को उन कुरीतियों से बचाने के लिए ऐतिहासिक प्रयास किए जिन कुरीतियों के कारण स्त्रियों को सती होना पड़ता था, बहुपत्नी प्रथा की शिकार होना पड़ता था तथा बालविवाह की जंजीरों में जकड़े रहना पड़ता था।

   देश की स्वतंत्रता के बाद स्त्रियों के सशक्तिकरण में जो तीव्रता आनी चाहिए थी, वह नहीं आई। संभवतः इसका एक बड़ा कारण देश के बंटवारे की त्रासदी थी जिसने स्त्रियों के सम्मान और जीवन को माखौल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक बार फिर मध्ययुगीन बर्बरता की यादें ताज़ा हो गईं जिसके परिणामस्वरूप स्त्रियों के सशक्तिकरण की गति अत्यंत धीमी पड़ गई। जागरूकता की लहर शहरों तक ही सीमित रही, ग्रामीण क्षेत्रें में प्रभाव न्यूनतम रहा (यदि काग़ज़ी अंाकड़ों को छोड़ दें)। जड़ सामाजिक परम्पराएं आज भी स्त्रियों की प्रगति की राह में रोड़ा बनी हुई हैं।

    एक स्त्री की शिक्षा पर उसका परिवार उसका दस प्रतिशत भी व्यय नहीं करता है जितना वह उस स्त्री के विवाह में दिखावे और दहेज के रूप में व्यय कर देता है। परिवार के लिए पुत्र का महत्व पुत्री की अपेक्षा आज भी अधिक है। स्त्री का दैहिक शोषण आज भी आम बात है।  घर, कार्यस्थल, सड़क, परिवहन, चिकित्सालय, मनोरंजन स्थल आदि कहीं भी स्त्री स्वयं को पूर्ण सुरक्षित अनुभव नहीं कर पाती है। स्त्री के आर्थिक अधिकार पुरुषों के बराबर न होने के कारण विवाहिताएं अपने पति द्वारा छोड़ दिए जाने से भयभीत रहती हैं। वे जानती हैं कि परितक्त्या स्त्री को समाज सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता है। बेशक गंावों में महिलाएं पंच, सरपंच चुनी जा रही हैं किन्तु इस योग्यता का सच किसी से छिपा नहीं है। अनेक महिला सरपंचों एवं पंचों का नाम तक अपने पति का नाम जोड़ कर चलता है, गोया उनके अपने नाम की कोई पहचान न हो। होता भी यही है, फलां की बहू, फलां की घरवाली के सम्बोधन को ले कर जीवन जी रही औरत जब अचानक राजनीति के अखाड़े में खड़ी कर दी जाती है तो वोट पाने के लिए मतदाताओं को यह जताना आवश्यक हो जाता है कि वह महिला उम्मीदवार किस परिवार की है, किसकी पत्नी है ताकि मतदाता उसके परिवार और उसके पति के रसूख को अनदेखा न कर सके। यदि इस स्थिति को गांवों में स्त्री की जागरूकता अथवा विकास का पर्याय मान लिया जाए तो यह स्वयं को एक सुन्दर धोखा देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

    नारीवादी आंदोलनों का संगठित रूप में भारत में अधिक पुराना इतिहास नहीं है। फिर भी विगत सौ वर्ष में जितने भी नारीवादी अंादोलन हुए उनके परिणामों के फलस्वरूप औरतों में जागरूकता का संचार हुआ, विशेष रूप से नगरीय औरतों में। अनेक महिला संगठन आज भी ग्रामीण औरतों का उत्थान करने तथा उन्हें विकास की मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं किन्तु हमारे देश में भौगोलिक विविधता के साथ-साथ सामाजिक विविधता भी बड़े पैमाने पर है, इन सब पर अभिशाप के रूप में आर्थिक विषमता मौजूद है जो किसी भी प्रयास के समरूप परिणाम में बाधा पहुंचाती है। जो आंदोलन अथवा संघर्ष दक्षिण भारत की ग्रामीण औरतों के लिए शतप्रतिशत सकारात्मक साबित होते हैं, वे उत्तर भारत की ग्रामीण औरतों पर खरे नहीं उतर सकते हैं। यही कारण है कि जिन महिला संगठनों की नीतियों के निर्धारण मैदानी क्षेत्र के अनुभवों को अनदेखा कर के महानगरीय वातावरण में बैठ कर किए जाते हैं वे सकारात्मक परिणाम नहीं दे पाते हैं।

     बुन्देलखण्ड की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति देश के अन्य क्षेत्रों से ही नहीं अपितु उत्तर भारत में भी अन्य क्षेत्रों से भिन्न है। यहंा भौगोलिक संसाधन तो पर्याप्त हैं किन्तु उनके दोहन की सुविधाएं न्यूनतम हैं। आर्थिक स्थिति का सीधा असर सामाजिक स्थिति पर पड़ता है। यदि समाज मुख्यधारा के साथ क़दम मिला कर प्रगति न कर पा रहा हो तो पारंपराओं एवं रीति-रिवाज़ों की भी प्रस्तुति (इंटरप्रिटीशन) ग़लत अपेक्षाओं के साथ की जाने लगती है। यह तथ्य लोक व्रत कथाओं के संदर्भ में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। जिस समाज में स्त्री की साक्षरता का प्रतिशत कम हो उस समाज में जो व्रत कथाएं स्त्री के अधिकारों की पैरवी करने वाली हों, उन्हें भी स्त्री को मानसिक रूप से  दलित बनाए रखने के लिए प्रयोग में लाया जाने लगता है।

स्त्री विमर्श को ले कर समकालीन लेखन पूरी गंभीरता के साथ सामने आ रहा है। स्त्रियां और विशेषरूप से लेखिकाएं अब मुखर हो गई हैं। वे बेझिझक उन बातों को अपनी लेखनी में उतार रही हैं जो बीते कल तक साहित्य के लिए प्रतिबंधित माने जाते थे। संदर्भगत मैं बीते कल के बारे में थोड़ा और स्पष्ट कर दूं कि यहां ‘बीते कल’ से मेरा आशय उस कल से है जिस पर विदेशी आक्रांताओं का साया भारतीय समाज को ग्रसित किए हुए था। घर की देहरी से पांव बाहर निकालने पर बंदिश, चेहरा दिखाने पर बंदिश, पर पुरुष से मिलना या बात करना तो दूर, पढ़ने-लिखने पर बंदिश... अनेक जंजीरें डाल दी गईं थीं स्त्री-जीवन पर। लेकिन विदेशी आक्रांताओं के पहले के समय पर दृष्टि डालें तो वहां स्त्रियां अनेक बंधनों से मुक्त दिखाई देती हैं। उन्हें वेदों को पढ़ने तक का अधिकार था। उन्हें अपनी इच्छा अनुसार वस्त्र पहनने का अधिकार था। गंधर्व विवाह एवं स्वयंवर के रूप में अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार था। वस्तुतः राजनीतिक वर्चस्व ने पुरुषों की श्रेष्ठता को उनके गुणों के बदले अवगुणों में ढाल दिया और पुरुषों ने अपनी सामाजिक सत्ता का दुरुपयोग करते हुए स्त्रियों के अस्तित्व को खण्डित करने में ही अपनी शक्ति लगानी शुरू कर दी। इसका एक ज्वलंत उदाहरण ‘महाभारत’ महाकाव्य में ‘शिखण्डी’ के रूप में मिलता है। महाभारत काल के भीष्म-प्रतिज्ञ पुरुष भीष्म पितामह ने काशी की तीन राजकुमारियों का अपहरण कर उनके जीवन को ग्रहण लगा दिया। उन्हीं तीन राजकुमारियों में से एक आगे चल कर शिखण्डी के रूप में हमारे सामने आती है।


हिन्दी साहित्य में मैत्रेयी पुष्पा, चित्रा मुद्गल, ममता कालिया, मृदुला गर्ग, प्रभाखेतान, सुधा आरोड़ा, अनामिका आदि वरिष्ठ लेखिकाओं ने स्त्री जीवन को अपने-अपने दृष्टिकोण से सामने रखा है। इन सभी का लेखन महत्वपूर्ण है। उर्दू में साहित्य में मुझे कुर्तलुनऐन हैदर सबसे अधिक प्रभावित करती हैं। स्त्री जीवन को देखने का उनका दृष्टिकोण बहुत ही मर्मस्पर्शी है। उनकी कृतियों में कई बार वे अंतर्मन को झकझोरने की ताकत अनुभव होती है, गोया वे रेशा-रेशा बयान करके सबकुछ ठीक करने देने की इच्छा रखती हों।

 

जहंा तक स्त्री विमर्श का प्रश्न है तो स्त्री विमर्श, स्त्री मुक्ति, नारीवादी आंदोलन आदि - इन सभी के मूल में एक ही चिन्तन दृष्टिगत होता है, स्त्री के अस्तित्व को उसके मौलिक रूप में स्थापित करना। स्त्री विमर्श को लेकर कभी-कभी यह भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि इसमें पुरुष को पीछे छोड़ कर उससे आगे निकल जाने का प्रयास है किन्तु ‘विमर्श’ तो चिन्तन का ही एक रूप है जिसके अंतर्गत किसी भी विषय की गहन पड़ताल कर के उसकी अच्छाई और बुराई दोनों पक्ष उजागर किए जाते हैं जिससे विचारों को सही रूप ग्रहण करने में सुविधा हो सके। स्त्री विमर्श के अंतर्गत  भी यही सब हो रहा है। समाज में स्त्री के स्थान पर चिन्तन, स्त्री के अधिकारों पर चिन्तन, स्त्री की आर्थिक अवस्थाओं पर चिन्तन तथा स्त्री की मानसिक एवं शारीरिक अवस्थाओं पर चिन्तन - इन तमाम चिन्तनों के द्वारा पुरुष के समकक्ष स्त्री को उसकी सम्पूर्ण गरिमा के साथ स्थायित्व प्रदान करने का विचार ही स्त्री विमर्श है।

स्त्री विमर्शकारों ने क्या कुछ छोड़ दिया है? इस प्रश्न का उत्तर अभी दे पाना संभव नहीं है, यह समय पर अतिक्रमण करने वाली बात होगी। अभी तो स्त्रीविमर्श की यात्रा ज़ारी है। किसी यात्रा के थमने या समाप्त होने के बही उसका आकलन उचित होता है, पहले नहीं।  


3. आपके प्रिय विदेशी रचनाकार और चिंतक? क्या स्त्री-विमर्श का कोई भारतीय चेहरा हो सकता है? यदि हाँ तो उसकी रूपरेखा क्या होगी?


मैंने लियो टाॅल्सटाय, मक्सिम गोर्की, दोस्तोएव्स्की, निकोलाई आस्त्रोवस्की, विलियम शेक्सपियर, कार्ल मार्क्स, जेन ऑस्टेन, फ्रेंच काफ्का, सिमोन द बोआ आदि प्रसिद्ध विदेशी लेखक-लेखिकाओं के साहित्य को पढ़ा है।

जहां तक स्त्री विमर्श के भारतीय चेहरे का प्रश्न है तो भारतीय सामाजिक परिवेश के लिए विदेशों से चेहरा नहीं ढूंढा जा सकता है और यह उचित भी नहीं है। भारत के सामाजिक मूल्य, सामाजिक अर्थवत्ता एवं समग्र वातावरण के अनुरुप विचार ही भारतीय स्त्री के विमर्श को चिंतन की ऊंचाइयों तक ले जा सकते हैं। इसके लिए किसी एक चेहरे को ढूंढना भी मैं उचित नहीं समझती हूं। यह समग्र की अवहेलना होगी। स्त्रीविमर्श के चिंतन को समग्र की दृष्टि से ही देखा जाना चाहिए, इसमें कई चेहरे मिल कर एक कैनवास तैयार कर रहे हैं, कोई एक चेहरा नहीं।  


4. आपके पात्रों में क्या शरद सिंह बोलती हैं या पात्र अपनी आवाज में बात कर रहे होते हैं? उन्हें शरद सिंह की सोच गढ़ती है या वे जीवन का हूबहू चित्रण है?


मेरे पात्रों में मैं नहीं होती हूं, अपितु मेरे पात्र ही होते हैं जो मेरी लेखनी के माध्यम से अपने जीवन की पर्तें खोलते जाते हैं। यदि लेखिका के रूप में मैं अपने लेखन में अपनी उपस्थिति को स्पष्ट करूं तो यही कहूंगी कि यह एक तरह का कायांतरण (ट्रांसफार्मेशन) होता है। मैं चिंतन, मनन और शोध से उस पात्र को महसूस करती हूं जिसके बारे में मैं लिख रही होती हूं। यहां लिंग (जेंडर) और अविवाहित होना (मेरिटल स्टेटस) भी गौण हो जाता है। जैसे- ‘पिछले पन्ने की औरतें’ में मैं हर बेड़नी के साथ स्वयं को पाती हूं और उसकी पीड़ा को आत्मसात करने का प्रयास करती हूं ताकि सच सबके सामने रख सकूं। जब मैंने ’पचकौड़ी’ उपन्यास लिखा तो एक साथ दो विपरीत लिंगी पात्रों को अपनी लेखनी में जिया - पचकौड़ी, वसुंधरा उर्फ़ ठकुराईन और शेफाली। वहीं ‘कस्बाई सिमोन’ में मैं स्वयं को सुगंधा के साथ खड़ा पाती हूं। फिर जब ‘शिखण्डी’ उपन्यास लिखती हूं तो कालयात्रा करती हुई उस स्त्री के तीन जन्मों तक उसके साथ होती हूं जो महाभारत महाकाव्य में शिखण्डी के नाम से एक विशिष्ट पात्र है।

    मैं अपने कथानक समाज से चुनती हूं। जब कथानक यथार्थ से उपजे होते हैं तो स्पष्ट है कि मेरे पात्र भी एकदम सच्चे और इसी समाज का हिस्सा होते हैं। बस, मैं उन्हें कथासूत्र में बांधने का काम करती हूं ताकि पाठक को रोचकता का अनुभव हो और वह सच से भी साक्षात्कार कर ले।


5. ‘पिछले पन्ने की औरतें’ एवम् ‘कस्बाई सिमोन’ उपन्यासों को लिखने के पीछे आपकी क्या भावना रही है?


ये दोनों सर्वथा भिन्न कथानकों के उपन्यास हैं। ‘पिछले पन्ने की औरतें’ उन स्त्रियों के पक्ष में आवाज़ उठाता है जो सदियों से सामाजिक शोषण और उपेक्षा को सह रही हैं जबकि ‘कस्बाई सिमोन’ उन स्त्रियों की बात करता है जो लिवइन रिलेशन में अपनी स्वतंत्रता ढूंढती हैं। तो पहले चर्चा करूंगी ‘पिछले पन्ने की औरतें’ के बारे में।

प्रत्येक नई धारा का प्रथम दृष्टि में ही स्वागत हो यह जरूरी नहीं है। हिन्दी साहित्य में रिपोर्ताजिक उपन्यास नगण्य रहे हैं, फिर भी मैंने जोखिम उठाते हुए अपने पहले उपन्यास में ही रिपोर्ताजिक शैली को अपनाया। इसी बात को यदि मैं और अधिक स्पष्ट शब्दों में कहूं तो रिपोर्ताजिक शैली ने मेरे उपन्यास के कलेवर को आत्मसात कर लिया और उसे उस बिन्दु तक पहुंचाया जहंा साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। यदि आप जीवन के तथ्यों को उसकी समग्रता के साथ सामने रखना चाहते हैं और साथ ही विश्वास दिलाना चाहते हैं कि उपन्यास के रूप में जो कुछ कहा जा रहा है उसमें नब्बे से पन्चान्बे प्रतिशत सच है तो फिक्शन की जगह सच्चाई को अधिक से अधिक जगह देनी होगी। वरना कल्पना की अधिकता सच को भी काल्पनिकता में बदलने लगती है।

हिन्दी उपन्यासों में शोधात्मक कथानकों को ले कर जोखिम उठाने की प्रवृति अभी पूर्ण व्यवहार में नहीं आई है। ऐसे समय में मेरा उपन्यास ‘पिछले पन्ने की औरतें’ कथानक और शिल्प दोनों की दृष्टि से परंपरागत मानकों से अलग हट कर था तो यश और अपयश दोनों का सामना मुझे करना ही था, जो मैंने किया भी।  नवीनता सदा जोखिम भरी होती है। लेकिन नवीनता ही चेतना का संचार करती है, उपन्यास की शैली और कथानक को ले कर यही मेरा मानना है। मुझे प्रसन्नता है कि पाठकों ने उसे दिल से स्वीकार किया।

बेड़िया समाज की औरतों यानी बेड़नियों के बारे में लिखने के लिए आवश्यक था कि मैं उनके बीच जा कर कुछ समय बिताऊं और उनकी जीवन-दशाओं से साक्षात्कार करूं। मैंने जब अपनी मंशा अपने मित्रों और परिचितों को बताई कि मैं बेड़नियों के जीवन पर कुछ लिखना चाहती हूं तो उनमें से कुछ ने मुझे ऐसा न करने की सलाह दी। वे इस तरह से जता रहे थे गोया मैं किसी निषिद्ध क्षेत्र में विचरण करने जा रही हूं। कुछ ने कहा कि इससे कुछ नहीं होने वाला है, न वे आपको सहयोग देंगी और न आपके लिखने से उनका भला होगा। मैंने भी ऐसे लोगों को यही उत्तर दिया कि यदि सब कुछ नकारात्मक ही सोच लिया जाए तो जीवन में सकारात्मक कुछ बचेगा ही नहीं। अरे, मुझे प्रयास तो करने दीजिए, चमत्कार की आशा तो मैं भी नहीं रखती हूं। वैसे इस प्रयास में सबसे अधिक मानसिक सहयोग मुझे मेरी दीदी डाॅ. वर्षा सिंह से मिला। यूं भी वे मुझे सदा प्रोत्साहित करती रहती हैं।

बहरहाल, मेरे सामने दूसरी सबसे बड़ी कठिनाई यह थी कि मैं उन स्त्रियों से उनकी सच्चाई स्वीकार करवा सकूं। जिन दिनों मैं बेड़नियों की निजी ज़िन्दगी में झंाकने का प्रयास कर रही थी तो कई बार मुझे लगा कि मैं उनसे उनके पूरे भेद नहीं ले सकूंगी। मैंने पाया कि वे देहव्यापार भले ही करती हैं किन्तु उनके भीतर की औरत पूरी तरह मरी नहीं है, वह सांस ले रही है और खुल कर बाहर आना चाहती है। उनमें स्त्रीसुलभ झिझक थी जिसके कारण वे दो-तीन मुलाकातों के बाद स्वीकार करने को तैयार हुईं कि वे देह-व्यापार करती हैं। वे भी शायद मेरे धैर्य और साहस की परीक्षा ले रही थीं। इसीलिए एक बेड़नी ने मुझे लगभग चुनौती देते हुए कहा था,‘ऐसा है तो दो दिन हमारे घर ठहर कर देखो, फिर अपनी अंाखों से देख लेना।’    

मैंने भी कहा, ‘ठीक है!’ और मैं उनमें से एक के घर दो-दो, तीन-तीन दिन के लिए दो-तीन बार जा कर ठहरी।  मेरे इस व्यवहार ने उन्हें मेरे प्रति पिघला दिया और वे अपने जीवन की परतें खोलने को राजी हो गईं। मैंने पाया कि मैंने उनका विश्वास जीत लिया है फिर लिखते समय उनके विश्वास के साथ घात कैसे कर सकती थी? मेरे लिए शिल्प से कहीं अधिक उनके विश्वास का महत्व था जो पीड़ा के रूप में व्यक्त हो जाने को उद्यत था, और मुझे उस पीड़ा का साथ देना ही था। आखिर बेड़नियां सदियों से अपने दुर्भाग्य को जी रही हैं।

अब चलिए बात करते हैं ‘कस्बाई सिमोन’ की। इसका कथानक भी यथार्थ से उपजा हुआ है। आरम्भ में यह एक छोटी कहानी थी जो लिवइन रिलेशन के स्त्रीपक्ष को जांचते हुए एक उपन्यास का विस्तार लेती चली गई। वस्तुतः लिवइन रिलेशन पाश्चात्य विचारधारा है लेकिन हमारे आधुनिक समाज में जब स्त्रियां महानगरों में अकेली रहती हुई अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं, लिवइन रिलेशन का विचार उन्हें अपने हित में महसूस होता है। लेकिन क्या वाकई यह विचारधारा भारतीय स्त्रियों के हित में है? यह प्रश्न जब मेरे मन में कौंधा तो इसके साथ ही एक प्रश्न और उठ खड़ा हुआ कि यदि किसी छोटे शहर या कस्बे की युवती लिवइन रिलेशन में रहने लगे तो उसे किन परेशानियों का सामना करना पड़ेगा? मैंने उन महिलाओं से भेंट की, चर्चा की जो लिवइन रिलेशन में रह रही थीं या रह चुकी थीं। संयोग से उनमें एक मेरी परिचित भी थी। उससे मुझे लिवइन रिलेशन के उन गोपन पक्षों की जानकारी मिली जो शायद एक अपरिचित स्त्री कभी साझा नहीं करती। लिवइन रिलेशन की विचारधारा एवं जीवनचर्या की पड़ताल के दौरान अनेक चैंकाने वाले तथ्य मेरे सामने आए। सोचने वाली बात है कि बिना विवाह किए साथ रहने के समझौते में जीवन बिताने का विचार रखने वाले स्त्री-पुरुष में यदि धीरे-धीरे पति की अधिकार भावना और पत्नी की पति से दब कर रहने की भावना बलवती होने लगे तो वहीं लिवइन रिलेशन की अवधारणा खण्डित हो जाती है। किसी मित्र के सपरिवार मिलने पर यदि लिवइन रिलेशन का सहचर साथी अपनी सहचरी को लिवइन रिलेशन में साथ रहने वाली स्त्री के रूप में परिचय न दे कर ‘तुम्हारी भाभी’ के रूप में परिचय दे या लिवइन रिलेशन में रहने वाली स्त्री समाज के दबाव में आ कर अन्य विवाहिताओं के साथ करवांचैथ का व्रत रखे तो ऐसे में लिवइन रिलेशन की अवधारणा कहां बची? इसका एक और घिनौना पक्ष है कि एक पुरुष एक से अधिक स्त्रियों के साथ उन्मुक्त संबंध बना कर भी अपने वैवाहिक जीवन के लिए एक पत्नी पा लेता है लेकिन एक स्त्री बिना विवाह के किसी पुरुष के साथ रह ले और फिर संबंध विच्छेद कर ले तो उस पर ‘‘फलां के साथ रह चुकी’’ का टैग लग जाता है जिसका उल्लेख इस तरह किया जाता है गोया वह निहायत पथभ्रष्ट स्त्री हो।

मैंने अपने उपन्यास ‘‘कस्बाई सिमोन’’ में लिवइन रिलेशन की अवधारणा का न तो समर्थन किसा है और न विरोध। मैं यह मानती हूं कि हर व्यक्ति को अपना जीवन अपनी इच्छानुसार जीने का अधिकार होता है। लेकिन भारतीय सामाजिक परिवेश में लिवइन रिलेशन की अवधारणा के अच्छे और बुरे पक्ष को तटस्थ भाव से सामने रखने के लिए इस विषय को अपने उपन्यास का कथानक बनाया। मैं तो यही मानती हूं कि लिवइन रिलेशन एक आग का दरिया है, जिसमें जोखिम उठा सकता हो वह इसमें प्रवृत्त हो अन्यथा वैवाहिक अवधारणा को अपनाए। विशेषरूप से स्त्रियों को इस अवधारणा की बारीकियों एवं ज़मीनी कठिनाइयों को पहले परख लेना चाहिए।

समस्या क्या है कि प्रायः लोग विषय को ले कर अपने मन में तरह-तरह पूर्वाग्रह पाल लेते हैं। ऐसे में उनके लिए कथानक के मर्म को समझ पाना ज़रा कठिन हो जाता है। जब आप किसी नए विषय पर कोई कृति पढ़ रहे हों तो आपको अपना मन-मस्तिष्क सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों से मुक्त रखना चाहिए अन्यथा नकारात्मक विचार कृति के सकारात्मक तत्वों से ध्यान हटा देते हैं। वैसे आज का पाठकवर्ग, विशेषरूप से युवा पीढ़ी बहुत समझदार है। वह हर तथ्य को सूक्ष्मता से समझना-बूझना चाहती है और जीवन की जटिलताओं के बीच रास्ता पा लेती है।  

 

6. एक युवा स्त्री की जीवन-नीति संबंधी मान्यता क्या है?

 

युवा स्त्रियों का आर्थिक सशक्तीकरण सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है। आर्थिक रूप से आश्रित होना ही स्त्री को कमजोर बनाता है। लेकिन अर्थव्यवस्था में स्त्रियों और युवतियों को समाहित करने और कार्यस्थलों एवं सार्वजनिक स्थानों को सुरक्षित बनाने के साथ-साथ स्त्रियों और युवतियों के साथ होने वाली हिंसा को रोकने की भी जरूरत है। साथ ही समाज में उनकी पूर्ण भागीदारी और उनके स्वास्थ्य एवं संपन्नता पर भी ध्यान दिया जाना आवश्यक है।

 

उचित अवसर मिलने पर युवतियां देश का सामाजिक और आर्थिक भाग्य बदल सकती हैं। लेकिन इस परिवर्तन के लिए सतत निवेश और भागीदारी की जरूरत है, साथ ही युवतियों के स्वास्थ्य, शिक्षा एवं रोजगार से संबंधित मुद्दों पर व्यापक रूप से काम करने की आवश्कता है। युवतियों का मनोबल बढ़ाया जाना चाहिए और जिन क्षेत्रों का प्रत्यक्ष प्रभाव उनके भविष्य पर पड़ने वाला है, विशेष रूप से उन क्षेत्रों से संबंधित फैसलों में उन्हें सहभागी बनाया जाना चाहिए।

इस सबसे पहले आवश्क है कि युवतियों को यौनहिंसा से मुक्त समाज मिले जहां वे अभया हो कर अपना कौशल और अपनी क्षमताएं दिखा सकें। स्त्रियों के साथ हिंसा का एक और पक्ष है- घरेलू हिंसा। दुर्भाग्यवश हमारे देश में स्त्रियों के विरुद्ध घरेलू हिंसा, देश का सबसे अधिक हिंसक अपराध रहा है। चूंकि हर पांच मिनट में घरेलू हिंसा की एक घटना दर्ज़ होती है। इसलिए युवा स्त्रियों को हिंसा के प्रत्येक रूप का विरोध करना आना चाहिए।

 

6. पुरुष की ईर्ष्यालु मनोवृत्ति का जगह-जगह सामना करना पड़ता है? क्या यह सच है? आपके अनुभव क्या हैं?

 

 ईर्ष्यालु तो एक मानवीय प्रवृत्ति है। पुरुष भी ईर्ष्यालु होते हैं और स्त्रियां भी। किसी भी व्यक्ति के भीतर ईर्ष्या के भाव तभी जागते हैं जब वह कुंठा से घिर जाता है। ईर्ष्या मनुष्य द्वारा अनुभव की जाने वाली सबसे दर्दनाक और विवादास्पद भावनाओं में से एक है। ईर्ष्या एक भावना है, और यह शब्द आम तौर पर विचारों और असुरक्षा की भावना को दर्शाता है। ईष्र्या अक्सर क्रोध, आक्रोश, अपर्याप्तता, लाचारी और घृणा के रूप में भावनाओं का एक संयोजन होता है। शायद दुनिया में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसने इस भावना का अनुभव नहीं किया होगा। ईर्ष्या की भावना पुरुषों और महिलाओं दोनों की समान रूप से पाई जाती है। अंतर केवल इस भावना को व्यक्त करने के तरीकों में है। बहुसंख्यक पुरुष आक्रामक हो कर अपनी ईर्ष्या  प्रकट करते हैं, वहीं ऐसी स्त्रियां कम ही हैं जो ईर्ष्या में सभी सीमाएं लांघ जाएं।

   निसंदेह, मुझे भी अपने जीवन में ईष्यालुओं से पाला पड़ा है किन्तु मैंने उनकी ओर कभी उस सीमा तक ध्यान नहीं दिया कि मैं अपने मूलकर्म से विचलित हो जाऊं। हमारी संस्कृति और संस्कार यही तो सिखाते हैं कि ईर्ष्या कोई ऐसा आवश्यक प्रश्न नहीं है कि जिसका उत्तर दिया जाए। ईर्ष्या को अनुत्तरित रहने दें, फिर देखें कि आप उससे प्रभावित हुए बिना आगे बढ़ सकते हैं।  

 

 

7. स्त्री लेखन पुरुष लेखन से किस प्रकार भिन्न होता है?

 

यूं तो लेखन को स्त्री और पुरुष के खांचे में रखना मुझे पसंद नहीं है लेकिन जब बात कथानक की हो तो स्त्री लेखन और पुरुष लेखन में अंतर को नकारा नहीं जा सकता है और इस अंतर का सीधा कारण है अनुभव क्षेत्र की परस्पर भिन्नता। जैसे एक स्त्री पुरुष के मन और जीवन के हर तत्व को समझ नहीं सकती है, ठीक उसी प्रकार पुरुष भी स्त्री जीवन के निजी अनुभवों और कठिनाइयों को अक्षरशः भांप नहीं सकता है। इसलिए दोनो के लेखन में परस्पर भिन्न अनुभवों के स्वर मुखर होते हैं जो एक-दूसरे के पूरक बनते हैं, न कम-न अधिक। दोनों की अपनी समान महत्ता है और दोनों की समान उपादेयता है।

 

8. आपके रचनाकर्म के क्या कुछ ऐसे पक्ष हैं जो पाठकों, टिप्पणीकारों, शोधार्थियों या आलोचकों की समझ से छूट गये हों?

 

मेरी एक कविता की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं-

कुछ न कुछ छूट जाता है हर बार

एक उलाहने के लिए

छूटना भी चाहिए

अन्यथा

अवरुद्ध हो जाएगें

परस्पर संवाद।

तो छूटने के बारे में मैं क्या बताऊं, आपके इस प्रश्न का उत्तर तो पाठक, टिप्पणीकार, शोधार्थी या आलोचक ही दे सकते हैं कि वह मेरे लेखन में क्या नहीं समझ पाए? आप भी एक शोधार्थी हैं, यदि आप इस प्रश्न का कोई उत्तर देना चाहें तो उसे अपने शोधकार्य में अवश्य शामिल करें। 

 

आपको आपके उज्ज्वल भविष्य के लिए हार्दिक शुभकामनाएं!

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