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पराई बेटी - डॉ (सुश्री) शरद सिंह, कहानी

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कहानी

पराई बेटी

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

बाल्कनी में बैठी हुई मंजू जी ने चाय का अभी एक घूंट भरा ही था कि दिव्या की आवाज़ आई - "मम्मी चाय में चीनी कम तो नहीं है।"

मंजू जी ने उत्तर दिया,"नहीं बेटा चाय में चीनी पर्याप्त है न कम और न ज्यादा बिल्कुल ठीक उतनी ही जितनी कि मैं चाय में लेती हूं।"

चाय के घूंट पीती हुई मंजू जी फिर अतीत की यादों में खो गईं। 

'मंजू जी'इस संबोधन से उन्हें उनके पति बुलाते थे। वैसे उनका नाम मंजूलता है लेकिन उनके पति हमेशा उन्हें मंजू जी ही कहते रहे हैं और इसीलिए उन्हें उनके सारे रिश्तेदार, उनकी कालोनी के लोग और उनके परिचित सभी उन्हें मंजू जी ही कहते हैं । पति के स्वर्गवास के बाद शुरू-शुरू में उन्हें बहुत अकेलापन महसूस होता था लेकिन कालांतर में धीरे-धीरे वे अपनी स्कूल शिक्षिका की नौकरी और दोनों बच्चों में व्यस्त हो गईं । बेटा देवांश और बेटी दिव्या कब बड़े हो गए कब उनका विवाह हो गया और कब अपनी-अपनी ज़िम्मेदारियों में वे भी व्यस्त हो गए, मंजू जी को मानो एहसास ही नहीं हुआ। बेटा देवांश अपनी पत्नी और बच्चे के साथ ही मंजू जी का भली-भांति ख़याल रखने लगा और बेटी दिव्या विवाह के बाद अपने ससुराल चली गई । बेटियां तो वैसे भी पराए घर की होती हैं । मंजू जी  दिव्या से हमेशा यही कहतीं कि बेटी तुम तो पराए घर की हो । तुम्हें तो हमसे एक दिन नाता तोड़ना ही है। दिव्या उनकी यह बात सुनकर हमेशा नाराज़ हो जाती थी। वह कहती  कि "मम्मी आप भी न ! आप मुझे हमेशा पराया-पराया क्यों कहती हैं ?.... और मैं ससुराल जाकर भी बेटी तो आपकी ही रहूंगी । मेरा और आपका मां - बेटी का नाता कभी टूटने वाला नहीं है।"

...और तब मंजू जी मन ही मन स्वयं से कहती कि... अरे जैसे मैं अपना मायका छोड़कर यहां ससुराल में पूरी जिंदगी व्यतीत कर रही हूं दिव्या ! तू भी ससुराल जाकर अपने मायके को पलट कर नहीं देखेगी , मैं जानती हूं आज भले ही तू कुछ भी कह ले कल तू मुझसे नाता तोड़ ही लेगी।

लेकिन आज बालकनी में बैठकर दिव्या के हाथों की बनी चाय पीते हुए मंजू जी को अपनी सोच पर बहुत पछतावा हो रहा था। उन्हें याद आया कि हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी  जब उनकी बहू होली का त्यौहार मनाने के लिए अपने मायके गई और  रंग पंचमी के बाद देवांश उसे लेने के लिए उसके मायके गया तो वहीं का होकर रह गया ...नहीं, घर जमाई बनकर नहीं …. परिस्थितिवश हुआ यूं कि कोरोना महामारी की आपदा के कारण पहले जनता कर्फ्यू और उसके बाद लॉकडाउन लग जाने के कारण देवांश को अपनी पत्नी के मायके में ही रुकना पड़ा। वीडियो कॉलिंग पर मंजू जी ने उसे बताया था कि उन्हें अपनी तबीयत कुछ ठीक  नहीं लग रही है। लेकिन देवांश ने मंजू जी को अपनी मजबूरी बताते हुए बताया था कि लॉकडाउन के कारण घर नहीं लौट पा रहा है और ऑफिस का काम भी ससुराल में रहते हुए मोबाईल, लैपटॉप पर ही कर रहा है।  

मंजू जी क्या करतीं। मन मसोसकर रह गई थीं। अकेलापन और भी घबराहट पैदा कर रहा था । रात को मोबाइल पर दिव्या से बात करते हुए वे अपनी तबीयत का हाल छुपाने की कोशिश करती रहीं लेकिन दिव्या ने बातचीत से ताड़ लिया कि मंजू जी का हाल अच्छा नहीं है, वे अकेलेपन और तबीयत ठीक नहीं होने के कारण घबरा रही हैं।

दिव्या ने पूछा था, "मम्मी मैं आ जाऊं क्या?"

 तो मंजू जी ने उसे कहा था नहीं बेटी तुम बिल्कुल मत आना। एक तो तुम पराए घर की हो और दूसरे लॉकडाउन के कारण  तुम यहां कैसे आ पाओगी। तुम तो यहां आने की सोचना भी मत । मेरा जो भी होगा मैं स्वयं संभाल लूंगी। मंजू जी को रात भर नींद नहीं आई थी  सुबह-सुबह आंख लगी ही थी कि दरवाजे की कॉल बेल बजी। 

लॉकडाउन में इतनी सुबह-सुबह कौन आया होगा ? सोचती हुई मंजू जी ने दरवाज़ा खोला तो सामने दिव्या खड़ी दिखी । दिव्या को देखकर वे चौंक गई -"अरे दिव्या! तुम बेटा तुम कैसे आ गई ?"

 दिव्या ने कहा - "मम्मी मुझे अंदर आने भी दोगी या बाहर से ही रुख़सत कर दोगी । मैं तो पराए घर की हूं न !"और वह हंसने लगी। 

मंजू जी ने एक और हटकर दिव्या को रास्ता दिया और दिव्या अंदर आ गई। दिव्या ने पूछा कि - "मम्मी तुम्हारी तबीयत अब कैसी है ?"मंजू जी ने कहा कि - "बेटा, तुम्हें देखकर तो मेरी सारी घबराहट दूर हो गई है लेकिन  तुम पहले यह बताओ कि तुम आई कैसे ?

 दिव्या ने हंसकर कहा -"मम्मी कुछ ग़लत मत सोचना । मैं अपनी ससुराल से भाग कर नहीं आई हूं । मैंने जब संजय और उनके मम्मी पापा से आपकी तबीयत का हाल बताया तो संजय ने अपने मम्मी पापा  की  आज्ञा से तत्काल  सक्षम अधिकारियों से परमिशन लेकर मेरे लिए गाड़ी का बंदोबस्त कर दिया और लॉकडाउन में भी मैं सुरक्षित आपके पास आ गई हूं ... और हां, पूरे लॉकडाउन की अवधि में जब तक देवांश भैया यहां नहीं आ पाते हैं, मैं आपके साथ ही रहूंगी ।"

मंजू जी बोल उठीं- "लेकिन बेटा, तुम्हारी ससुराल का क्या होगा?"

"मेरी ससुराल की चिंता आप बिल्कुल मत करिए। वहां मेरी ननद, मेरी सासू मां उस घर की देखरेख के लिए मौजूद हैं , आपके दिए हुए संस्कारों के कारण मैं उनकी बहुत सेवा करती हूं और वह भी मुझे अपनी बेटी की तरह मानते हैं ।"- दिव्या ने उत्तर दिया।


जिस बेटी को आज तक मंजू जी पराए घर की कहती रहीं, वही बेटी आज उनके पास उनका सहारा बनकर मौजूद है ।

ये सारी बातें याद करते हुए मंजू जी की आंखों में आंसू आ गए । वे सोचने लगीं कि  एक ओर  हम बेटी ससुराल जा कर भी वह दोनों कुल की लाज रखे यानी मायके की प्रतिष्ठा की रक्षा करे और वहीं, दूसरी ओर  बेटी के ससुराल जाते ही उससे मायके की डोरियां काटने लगते हैं।  बेटी के भी दिमाग़ में यही पर बिठा कर रखते हैं कि वह तो पराई हो चुकी है। स्वयं भी उससे इसी तरह का व्यवहार करने लगते हैं जैसे वह पराई हो। जबकि बेटी ऐसा कभी नहीं सोचती। वह अपने मायके को कभी पराया नहीं मानती है। दिव्या के रूप में एक उदाहरण आज मंजू जी के सामने था। बेटे देवांश ने इस तरह अपनी मां के पास आने के बारे में नहीं सोचा जबकि बेटी दिव्या ने न केवल सोचा अपितु आ भी गई। उसने तो अपनी मां को पराया नहीं माना, भले ही उसे हमेशा पराई होने का अहसास कराया गया। मंजू जच की आंखें पुनः भर आईं।

       चाय का प्याला  एक ओर रखते हुए उन्होंने दिव्या को पुकारा- "बेटा, तुम भी यहीं बालकनी में आ जाओ । टेबिल की दराज़ में रखा पुराना एल्बम भी लेती आना । हम दोनों मां-बेटी कुछ देर यहीं बैठ कर पुराने दिनों को याद ताज़ा करेंगे।"

"हां मम्मी, बहुत मज़ा आएगा। अभी आई आपकी यह पराए घर की बेटी ।" - दिव्या ने कमरे से आवाज़ दी। दिव्या की बात सुनकर मंजू जी का गला भर आया । वे रुंधे गले से बोल पड़ीं - "बेटी तू तो मेरी अपनी बेटी है।  अब कभी मैं तुझे पराए घर की बेटी नहीं कहूंगी और तू भी मुझे मेरी इस बात की याद नहीं दिलाना।"

मंजू जी को इस बात का भली-भांति एहसास हो गया था कि बेटी, बेटी होती है । पराए घर जा कर भी बेटी कभी पराई नहीं होती।

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