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जिंदा मुहावरों का समय ... डाॅ शरद सिंह के संस्मरण पुस्तक के अंश - 2


जिंदा मुहावरों का समय ... डाॅ शरद सिंह के संस्मरण पुस्तक के अंश - 3

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सन् 1983 में जबलपुर से प्रकाशित होने वाले "नवीन दुनिया"में छपी मेरी तस्वीर...
उन दिनों हमारे पास सोनी कंपनी का ब्लैक एंड वाइट फोटो वाला एक छोटा-सा कैमरा था, उसी कैमरे से वर्षा दीदी ने मेरी यह तस्वीर खींची थी।
Sharad Singh, 1983 By Sony Camera Published in Navin Dunia, Jabalpur

जिंदा मुहावरों का समय ... डाॅ शरद सिंह के संस्मरण पुस्तक के अंश - 4

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कल रात मैंने अपनी फाईल पलटी तो उसमें मुझे अपनी 08 जुलाई 1982 की वह रिपोर्ट मिली जो मैंने दस्यु चाली राजा के सरेंडर पर लिखी थी।

निश्चित रूप से योगेंद्र सिंह सिकरवार जी के लिए भी वे दिन अविस्मरणीय होंगे क्योंकि उन दिनों संपूर्ण बुंदेलखंड क्षेत्र में डकैतों का आतंक था । विशेष रुप से पन्ना जिले में डकैत चाली राजा ने आतंक मचा रखा था और इस आतंक को मिटाने के लिए स्थानीय पुलिस बल के साथ में बीएसएफ का भी सहयोग लिया गया था।

मुझे आज भी याद है चाली उर्फ़ चार्ली राजा एक निहायत दुबला-पतला सामान्य-सी कद-काठी वाला एक आम ग्रामीण युवक दिखता था। यदि उसके हाथ में बंदूक न होती तो शायद वह किसी को भी मारने की हिम्मत नहीं रखता। यदि देखा जाए तो ग्रामीणों में से किसी का भी डकैत बनना बदले की भावना के हाथों में हथियार आ जाने की प्रक्रिया थी।
जिन्होंने सरेंडर किया वे जीवित रहे और अपने जीवन की दूसरी पारी जी सके जबकि अनेक डकैत पुलिस के हाथों मारे गए।
इसी संदर्भ में एक और वाकया मुझे याद आ रहा है जब मैं उन दिनों छतरपुर में कक्षा सातवीं में पढ़ती थी। मेरी मां उन दिनों B.Ed ट्रेनिंग के लिए छतरपुर में रह रही थीं और मैं उनके साथ वही पढ़ती थी। उन दिनों छतरपुर जिले में भी डकैतों का आतंक था। जब डकैत पुलिस के हाथों मारे जाते तो पुलिस वाले उनके शवों को ट्रैक्टर ट्रॉली में रखकर सार्वजनिक स्थान पर प्रदर्शित करते थे ताकि बाकी डकैतों तक यह संदेश जा सके कि यदि वे सरेंडर नहीं करेंगे तो उनका भी यही हश्र होगा। साथ ही जनता आश्वस्त हो सके कि डकैत मारे जा रहे हैं।

एक दिन स्कूल से लौटते समय मैंने भी छत्रसाल चौराहे पर ऐसी ही एक ट्रॉली देखी थी जिसमें तीन या चार शव प्रदर्शित थे । मुझे बहुत अज़ीब लगा था, वह सब देख कर। मैंने मां से इस बारे में चर्चा की थी। तब मां ने मुझे समझाया था कि आइंदा मैं ऐसा कोई दृश्य न देखूं और जो देखा है वह सब भुला दूं । उन दिनों तो शायद मैंने भुला भी दिया था लेकिन मेरी स्मृतियों के किसी कोने में वह दृश्य आज भी ताज़ा है और मुझे लगता है कि इस तरह से शवों के प्रदर्शन का वह तरीक़ा बिल्कुल भी ठीक नहीं था क्योंकि सार्वजनिक स्थान पर मेरी तरह बच्चे भी मौजूद होते थे।
पन्ना में पत्रकारिता करते हुए दस्यु उन्मूलन अभियान के बारे में बारीक़ी से जानने का मुझे मौका मिला। डकैत चाली राजा के सरेंडर के बाद यह समस्या खत्म नहीं हुई। कोई न कोई छुटपुट डकैत पैदा होता रहा। एक बार मुझे भी एक एनकाउंटर स्थल देखने का मौका मिला। दरअसल, हम पत्रकारों को सुबह पुलिस की ओर से सूचना मिली कि रात को कुछ डकैतों के साथ एनकाउंटर किया गया है, जिसमें कुछ डकैत मारे गए हैं। घटनास्थल पर उनके शव यथास्थिति मौजूद थे। जिन्हें देखने के लिए हम पत्रकारों को आमंत्रित किया गया था। मैं भी साथी पत्रकारों के साथ घटना स्थल पर गई। वहां मैंने पहली बार किसी ऐसे शव को देखा जिसके सिर पर गोली लगी थी और उसका भेजा बाहर आ गया था। वह मृतक डकैत बिल्कुल भी डकैत जैसा नहीं लग रहा था बल्कि किसी आम ग्रामीण की भांति दिखाई दे रहा था। उन दिनों यह भी अफ़वाह थी कि पुलिस अपना रिकॉर्ड ठीक करने के लिए फेक एनकाउंटर भी कर रही है। उन शवों को देखने के बाद यह कहना कठिन था कि वह रियल एनकाउंटर है या फेक एनकाउंटर। पर हमारे पास पुलिस पर विश्वास करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था क्योंकि हम चाली राजा को देख चुके थे जो देखने में एकदम आम ग्रामीण युवक दिखाई देता था। वैसे मैंने डकैत मूरत सिंह, डकैत मौनीराम सहाय को छतरपुर में उनके आत्मसमर्पण के समय देखा था। जबकि डकैत पूजा बब्बा से मेरी मुलाकात पन्ना में स्थित लक्ष्मीपुर की खुली जेल में हुई थी और उनसे चर्चा भी हुई थी यद्यपि मैं वहां पत्रकार के रूप में नहीं बल्कि वहां के जेलर जो हमारे पारिवारिक परिचित थे, उनके आमंत्रण पर मां और दीदी के साथ गई थी। पूजा बब्बा बहुत ही सुलझे हुए व्यक्ति लगे थे। उनकी एक आंख पत्थर की थी जिससे उन्हें देखने से एक अजीब भय उत्पन्न होता था। लेकिन बातचीत करने के बाद वह भय दूर हो गया था। उन्होंने हमें दूध और इलायची से बनी शरबत पिलाई थी। जब मैंने उनके बारे में जानकारी ली तो पता चला कि वह परिस्थितिवश डकैत बने थे और सरकार के द्वारा खुली जेल में रहकर सामान्य जीवन की ओर फिर से लौटने का प्रस्ताव मिलने पर उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया था। वैसे दस्यु मूरत सिंह, मोनी राम सहाय और पूजा बब्बा का व्यक्तित्व उसी प्रकार का था जैसे फिल्मों में अच्छे वाले डकैत दिखाए जाते हैं। डकैत मूरत सिंह के बारे में कहा जाता था कि वे सिर्फ़ अमीरों को लूटते थे और गरीबों की मदद करते थे। वे छतरपुर स्थित जटाशंकर मंदिर के लिए दान-दक्षिणा दिया करते थे। जिस प्रकार मूरत सिंह के सरेंडर में तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की विशेष भूमिका रही, उसी प्रकार चाली राजा के सरेंडर में म.प्र.शासन के तत्कालीन संसदीय सचिव कैप्टन जयपाल सिंह की खास भूमिका रही, जो कि पन्ना के ही थे।
Damoh Sandesh, 08,07,1982, Chaali Raaja, Dr Sharad Singh



जिंदा मुहावरों का समय ... डाॅ शरद सिंह के संस्मरण पुस्तक के अंश - 5

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 इंटरव्यू जो मैंने तत्कालीन सुपरिंटेंडेंट ऑफ पुलिस श्री एस पी नायडू से लिया था। आपको बता दूं कि श्री एसपी नायडू मशहूर क्रिकेटर कर्नल सीके नायडू के पुत्र थे। उनसे मेरी लंबी-चौड़ी सार्थक बातचीत हुई थी। यह इंटरव्यू मैंने दस्यु चाली राजा के सरेंडर के बाद लिया था जिसमें बाकी बचे डकैतों के सरेंडर के बारे में भी उनसे चर्चा हुई थी। यह 11 जुलाई 1982 को साप्ताहिक "रेवांचल"में प्रकाशित हुआ था।
Revanchal, 11 July 1982, Naidu Interview, Dr Sharad Singh


जिंदा मुहावरों का समय ... डाॅ शरद सिंह के संस्मरण पुस्तक के अंश - 6

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मेरा पहला सम्वाददाता पत्र ... 
मित्रो, यह फोटो मैंने अपने कॉलेज ID के लिए पन्ना में जुगलकिशोर जी के मंदिर के पास जड़िया स्टूडियो में खिंचवाई थी। दो चोटी और बेलबॉटम का ज़माना ज़ारी था। उस पर जुनून पत्रकारिता का। 
         दैनिक "कृष्ण क्रांति"पन्ना के पड़ोसी ज़िला छतरपुर से प्रकाशित होता था। डॉ. अजय दोसाज इसके संपादक थे। उन दिनों पत्रकारिता जगत में छतरपुर की पत्रकारिता ने अपनी अलग ही पहचान बना रखी थी। उल्लेखनीय है कि सन् 1979-80  के प्रसिद्ध "छतरपुर कांड"जिसमें पत्रकारों के दमन उत्पीड़न की जुडिशल इंक्वायरी और प्रेस काउंसिल द्वारा जांच की गई थी। पत्रकारों ने इस संघर्ष में जीत हासिल की थी। इसी कांड के बाद छतरपुर के पत्रकार राजेश बादल (जो अब देश के जानेमाने पत्रकार हैं) ने आंचलिक पत्रकार से पूर्णकालिक पत्रकार की पारी शुरू की थी।

#ज़िंदा_मुहावरों_का_समय
#संस्मरण #मेरेसंस्मरण #डॉशरदसिंह #शरदसिंह #Memoir #MyMemoir #Zinda_Muhavaron_Ka_Samay
#DrSharadSingh #miss_sharad

जिंदा मुहावरों का समय ... डाॅ शरद सिंह के संस्मरण पुस्तक के अंश - 7

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80 के दशक में आंचलिक और कस्बाई पत्रकारिता का अपना एक विशेष महत्त्व था। छोटे शहरों में पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करना जहां एक ओर जोखिम भरा हुआ करता था वहीं दूसरी ओर उसे सम्मान की दृष्टि से भी  देखा जाता था। मैंने जब पन्ना से ज़मीनी पत्रकारिता शुरू की तो मुझसे पहले श्रीमती प्रभावती शर्मा स्थानीय समाचार पत्र"पन्ना टाईम्स"का संपादन कर रही थीं और उन्हीं दिनों मेरी दीदी वर्षा सिंह पत्रकार एवं संवाददाता के रूप में जबलपुर से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र #नवीनदुनिया में नियमित रूप से "जोग लिखी"का कॉलम लिख रही थीं। फिर मैंने कमान सम्हाल ली। इस तरह  मैं पन्ना जिले की तीसरी महिला पत्रकार रही। यद्यपि श्रीमती प्रभावती शर्मा का दायरा स्थानीय समाचार पत्र के संपादक होने के कारण जिले तक सीमित था और  दीदी वर्षा सिंह मध्य प्रदेश विद्युत मंडल में चयनित होने के बाद पत्रकारिता छोड़कर नौकरी करने लगी थीं। वहीं मैं #जबलपुर #सतना #रीवा #भोपाल आदि अनेक स्थानों से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों में नियमित रूप से संवाददाता के रूप में तथा अनुबंध पर राष्ट्रीय स्तर के दैनिक तथा साप्ताहिक  #समाचारपत्र  एवं #पत्रिकाओं  के लिए कार्य करती रही। 

      एक लंबा अरसा पत्रकारिता के लिए समर्पित होकर मैंने कार्य किया। जबलपुर के  #नवीनदुनिया #नवभारत #ज्ञानयुगप्रभात #दैनिकभास्कर आदि। सतना के सतना टाइम्स। #रीवा के #रीवासमाचार। भोपाल के #प्रजामित्र, छतरपुर के #कृष्णक्रांति, दमोह से #दमोहसंदेश, कटनी से निकलने वाले #दैनिकआलोक.... इन अनेक समाचार पत्रों में संवाददाता की हैसियत से मैंने निरंतर लेखन कार्य किया। पत्रकार के रूप में अनेक राजनेताओं से साक्षात्कार किया जिसमें श्रीमती मेनका गांधी, एच.के.एल. भगत, अर्जुन सिंह, कैप्टन जयपाल सिंह, हेमवती नंदन बहुगुणा, बाबू जगजीवन राम, गवर्नर के.एम. चांडी इत्यादि प्रमुख थे। खजुराहो फेस्टिवल की नियमित रूप से चार-पांच वर्षों तक मैंने रिपोर्टिंग की और इस दौरान प्रसिद्ध नृत्यांगना उमा शर्मा, सोनल मान सिंह,  से मेरी बातचीत को #रविवार #पत्रिका में प्रमुखता से प्रकाशित किया गया था।

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जिंदा मुहावरों का समय ... डाॅ शरद सिंह के संस्मरण पुस्तक के अंश - 8

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जिला पत्रकार संघ पन्ना में मुझे पदाधिकारी रहने का भी अवसर मिला। सन् 1982 में सह सचिव रही तथा सन् 1984 में मंत्री के पद के लिए निर्वाचित हुई। पन्ना का जिला पत्रकार संघ एक औपचारिक पत्रकार संघ न होकर एक परिवार जैसा था, जिसमें सभी पत्रकार परिवार के सदस्यों की तरह एक दूसरे से स्नेह रखते हुए थे। यद्यपि संघ के अन्य सभी पदाधिकारी एवं सदस्य आयु में मुझसे बड़े थे तथा मेरे लिए सम्मानीय थे।
  ( तस्वीर में दो लम्बी चोटियों में मैं ही हूं।)

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डाॅ. शरद सिंह द्वारा संपादित पुस्तक मनोरमा ईयरबुक 2020 में शामिल

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Third Gender Vimarsh - Book Edited By Dr (Miss) Sharad Singh
❤️ Hearty Thanks The #Malayala_Manorama_Hindi_Yearbook 2020 🙏
❤️Hearty Thanks #Samayik_Prakashan 🙏

 मेरे द्वारा संपादित एवं सामयिक प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक ‘‘थर्ड जेंडर विमर्श’’ को मनोरमा ईयर बुक वर्ष 2020 में शामिल किया गया है। इस समाचार को वेब पोर्टल्स एवं सागर के समाचार पत्रों ने जिस प्रमुखता से स्थान दिया है उसे देख कर उनकी आत्मीयता का बोध होता है।
❤️ हार्दिक धन्यवाद ...
# दैनिकभास्कर #नवदुनिया #नवभारत #दैनिकजागरण #आचरण #देशबंधु #सागरदिनकर #राजएक्सप्रेस #स्वदेशज्योति #राष्ट्रीयहिंदीमेल

❤️ हार्दिक धन्यवाद वेब पोर्टल्स ...
#युवाप्रवर्तकडॉटकॉम #तीनबत्तीन्यूज़डॉटकॉम
#हरमुद्दाडॉटकॉम

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Navdunia,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Sagar Dinkar,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Navbharat,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Dainik Bhaskar,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Aacharan,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Deshbandhu,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Jagaran,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Raj Express,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Rashtriya Hindi Mail,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Swadesh Jyoti,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Web Portal, Teenbatti News.Com  05.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Web Portal, Yuva Pravartak,  06.06.2020

Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020, Web Portal, Har Mudda.Com  05.06.2020
Dr (Miss) Sharad Singh Edited Book Third Gender Vimarsh in Manorama Year Book 2020


ज़िंदा मुहावरों का समय - डॉ शरद सिंह - संस्मरण पुस्तक का अंश

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सन् 1985 में मैंने पहली बार सुप्रसिद्ध जैनतीर्थ कुण्डलपुर का भ्रमण किया। उन दिनों "बड़े बाबा"की  प्रतिमा अपने मूल स्थान पर थी। कुण्डलपुर पर लिखे मेरे लेख "नवनीत", "साप्ताहिक हिन्दुस्तान"और "नईदुनिया"में प्रकाशित हुए थे।

उल्लेखनीय है कि कुण्डलपुर भारत के मध्य प्रदेश राज्य में स्थित एक जैनों का एक सिद्ध क्षेत्र है जो दमोह से 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।  यहाँ तीर्थंकर ऋषभदेव की एक विशाल प्रतिमा है।

पराई बेटी - डॉ (सुश्री) शरद सिंह, कहानी

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कहानी

पराई बेटी

- डॉ (सुश्री) शरद सिंह

बाल्कनी में बैठी हुई मंजू जी ने चाय का अभी एक घूंट भरा ही था कि दिव्या की आवाज़ आई - "मम्मी चाय में चीनी कम तो नहीं है।"

मंजू जी ने उत्तर दिया,"नहीं बेटा चाय में चीनी पर्याप्त है न कम और न ज्यादा बिल्कुल ठीक उतनी ही जितनी कि मैं चाय में लेती हूं।"

चाय के घूंट पीती हुई मंजू जी फिर अतीत की यादों में खो गईं। 

'मंजू जी'इस संबोधन से उन्हें उनके पति बुलाते थे। वैसे उनका नाम मंजूलता है लेकिन उनके पति हमेशा उन्हें मंजू जी ही कहते रहे हैं और इसीलिए उन्हें उनके सारे रिश्तेदार, उनकी कालोनी के लोग और उनके परिचित सभी उन्हें मंजू जी ही कहते हैं । पति के स्वर्गवास के बाद शुरू-शुरू में उन्हें बहुत अकेलापन महसूस होता था लेकिन कालांतर में धीरे-धीरे वे अपनी स्कूल शिक्षिका की नौकरी और दोनों बच्चों में व्यस्त हो गईं । बेटा देवांश और बेटी दिव्या कब बड़े हो गए कब उनका विवाह हो गया और कब अपनी-अपनी ज़िम्मेदारियों में वे भी व्यस्त हो गए, मंजू जी को मानो एहसास ही नहीं हुआ। बेटा देवांश अपनी पत्नी और बच्चे के साथ ही मंजू जी का भली-भांति ख़याल रखने लगा और बेटी दिव्या विवाह के बाद अपने ससुराल चली गई । बेटियां तो वैसे भी पराए घर की होती हैं । मंजू जी  दिव्या से हमेशा यही कहतीं कि बेटी तुम तो पराए घर की हो । तुम्हें तो हमसे एक दिन नाता तोड़ना ही है। दिव्या उनकी यह बात सुनकर हमेशा नाराज़ हो जाती थी। वह कहती  कि "मम्मी आप भी न ! आप मुझे हमेशा पराया-पराया क्यों कहती हैं ?.... और मैं ससुराल जाकर भी बेटी तो आपकी ही रहूंगी । मेरा और आपका मां - बेटी का नाता कभी टूटने वाला नहीं है।"

...और तब मंजू जी मन ही मन स्वयं से कहती कि... अरे जैसे मैं अपना मायका छोड़कर यहां ससुराल में पूरी जिंदगी व्यतीत कर रही हूं दिव्या ! तू भी ससुराल जाकर अपने मायके को पलट कर नहीं देखेगी , मैं जानती हूं आज भले ही तू कुछ भी कह ले कल तू मुझसे नाता तोड़ ही लेगी।

लेकिन आज बालकनी में बैठकर दिव्या के हाथों की बनी चाय पीते हुए मंजू जी को अपनी सोच पर बहुत पछतावा हो रहा था। उन्हें याद आया कि हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी  जब उनकी बहू होली का त्यौहार मनाने के लिए अपने मायके गई और  रंग पंचमी के बाद देवांश उसे लेने के लिए उसके मायके गया तो वहीं का होकर रह गया ...नहीं, घर जमाई बनकर नहीं …. परिस्थितिवश हुआ यूं कि कोरोना महामारी की आपदा के कारण पहले जनता कर्फ्यू और उसके बाद लॉकडाउन लग जाने के कारण देवांश को अपनी पत्नी के मायके में ही रुकना पड़ा। वीडियो कॉलिंग पर मंजू जी ने उसे बताया था कि उन्हें अपनी तबीयत कुछ ठीक  नहीं लग रही है। लेकिन देवांश ने मंजू जी को अपनी मजबूरी बताते हुए बताया था कि लॉकडाउन के कारण घर नहीं लौट पा रहा है और ऑफिस का काम भी ससुराल में रहते हुए मोबाईल, लैपटॉप पर ही कर रहा है।  

मंजू जी क्या करतीं। मन मसोसकर रह गई थीं। अकेलापन और भी घबराहट पैदा कर रहा था । रात को मोबाइल पर दिव्या से बात करते हुए वे अपनी तबीयत का हाल छुपाने की कोशिश करती रहीं लेकिन दिव्या ने बातचीत से ताड़ लिया कि मंजू जी का हाल अच्छा नहीं है, वे अकेलेपन और तबीयत ठीक नहीं होने के कारण घबरा रही हैं।

दिव्या ने पूछा था, "मम्मी मैं आ जाऊं क्या?"

 तो मंजू जी ने उसे कहा था नहीं बेटी तुम बिल्कुल मत आना। एक तो तुम पराए घर की हो और दूसरे लॉकडाउन के कारण  तुम यहां कैसे आ पाओगी। तुम तो यहां आने की सोचना भी मत । मेरा जो भी होगा मैं स्वयं संभाल लूंगी। मंजू जी को रात भर नींद नहीं आई थी  सुबह-सुबह आंख लगी ही थी कि दरवाजे की कॉल बेल बजी। 

लॉकडाउन में इतनी सुबह-सुबह कौन आया होगा ? सोचती हुई मंजू जी ने दरवाज़ा खोला तो सामने दिव्या खड़ी दिखी । दिव्या को देखकर वे चौंक गई -"अरे दिव्या! तुम बेटा तुम कैसे आ गई ?"

 दिव्या ने कहा - "मम्मी मुझे अंदर आने भी दोगी या बाहर से ही रुख़सत कर दोगी । मैं तो पराए घर की हूं न !"और वह हंसने लगी। 

मंजू जी ने एक और हटकर दिव्या को रास्ता दिया और दिव्या अंदर आ गई। दिव्या ने पूछा कि - "मम्मी तुम्हारी तबीयत अब कैसी है ?"मंजू जी ने कहा कि - "बेटा, तुम्हें देखकर तो मेरी सारी घबराहट दूर हो गई है लेकिन  तुम पहले यह बताओ कि तुम आई कैसे ?

 दिव्या ने हंसकर कहा -"मम्मी कुछ ग़लत मत सोचना । मैं अपनी ससुराल से भाग कर नहीं आई हूं । मैंने जब संजय और उनके मम्मी पापा से आपकी तबीयत का हाल बताया तो संजय ने अपने मम्मी पापा  की  आज्ञा से तत्काल  सक्षम अधिकारियों से परमिशन लेकर मेरे लिए गाड़ी का बंदोबस्त कर दिया और लॉकडाउन में भी मैं सुरक्षित आपके पास आ गई हूं ... और हां, पूरे लॉकडाउन की अवधि में जब तक देवांश भैया यहां नहीं आ पाते हैं, मैं आपके साथ ही रहूंगी ।"

मंजू जी बोल उठीं- "लेकिन बेटा, तुम्हारी ससुराल का क्या होगा?"

"मेरी ससुराल की चिंता आप बिल्कुल मत करिए। वहां मेरी ननद, मेरी सासू मां उस घर की देखरेख के लिए मौजूद हैं , आपके दिए हुए संस्कारों के कारण मैं उनकी बहुत सेवा करती हूं और वह भी मुझे अपनी बेटी की तरह मानते हैं ।"- दिव्या ने उत्तर दिया।


जिस बेटी को आज तक मंजू जी पराए घर की कहती रहीं, वही बेटी आज उनके पास उनका सहारा बनकर मौजूद है ।

ये सारी बातें याद करते हुए मंजू जी की आंखों में आंसू आ गए । वे सोचने लगीं कि  एक ओर  हम बेटी ससुराल जा कर भी वह दोनों कुल की लाज रखे यानी मायके की प्रतिष्ठा की रक्षा करे और वहीं, दूसरी ओर  बेटी के ससुराल जाते ही उससे मायके की डोरियां काटने लगते हैं।  बेटी के भी दिमाग़ में यही पर बिठा कर रखते हैं कि वह तो पराई हो चुकी है। स्वयं भी उससे इसी तरह का व्यवहार करने लगते हैं जैसे वह पराई हो। जबकि बेटी ऐसा कभी नहीं सोचती। वह अपने मायके को कभी पराया नहीं मानती है। दिव्या के रूप में एक उदाहरण आज मंजू जी के सामने था। बेटे देवांश ने इस तरह अपनी मां के पास आने के बारे में नहीं सोचा जबकि बेटी दिव्या ने न केवल सोचा अपितु आ भी गई। उसने तो अपनी मां को पराया नहीं माना, भले ही उसे हमेशा पराई होने का अहसास कराया गया। मंजू जच की आंखें पुनः भर आईं।

       चाय का प्याला  एक ओर रखते हुए उन्होंने दिव्या को पुकारा- "बेटा, तुम भी यहीं बालकनी में आ जाओ । टेबिल की दराज़ में रखा पुराना एल्बम भी लेती आना । हम दोनों मां-बेटी कुछ देर यहीं बैठ कर पुराने दिनों को याद ताज़ा करेंगे।"

"हां मम्मी, बहुत मज़ा आएगा। अभी आई आपकी यह पराए घर की बेटी ।" - दिव्या ने कमरे से आवाज़ दी। दिव्या की बात सुनकर मंजू जी का गला भर आया । वे रुंधे गले से बोल पड़ीं - "बेटी तू तो मेरी अपनी बेटी है।  अब कभी मैं तुझे पराए घर की बेटी नहीं कहूंगी और तू भी मुझे मेरी इस बात की याद नहीं दिलाना।"

मंजू जी को इस बात का भली-भांति एहसास हो गया था कि बेटी, बेटी होती है । पराए घर जा कर भी बेटी कभी पराई नहीं होती।

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ज़िंदा मुहावरों का समय - डॉ शरद सिंह - संस्मरण पुस्तक का अंश

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( शायद यक़ीन न हो पर ये मैं हूं... 5 वीं कक्षा की ग्रुप फोटो में से...निहायत बुद्धू-सी दिखाई दे रही ह़ूं !)

        उन दिनों मैं पन्ना (म.प्र) के शिशु मंदिर विद्यालय में पढ़ा करती थी। (सरस्वती शिशु मंदिर नहीं) यह मनहर महिला समिति  नामक एक ट्रस्ट द्वारा संचालित  विद्यालय था,  जिला कलेक्टर की पत्नी भी उस ट्रस्ट की मेंबर हुआ करती थीं । मुझे याद है कि उन दिनों मृणाल पांडे जी के पति अरविंद पांडे पन्ना में कलेक्टर थे और वे ट्रस्ट की मेंबर के रूप में मेरे विद्यालय कभी-कभी आया करती थीं। उन दिनों मुझे उनके बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं थी। वह तो कॉलेज पहुंचते-पहुंचते यह पता चला कि वे प्रख्यात उपन्यासकार शिवानी जी की पुत्री थीं और स्वयं भी प्रखर पत्रकार और लेखिका थीं।

     बड़ा खूबसूरत था मेरा वह स्कूल। शासकीय मनहर कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय से बिलकुल सटा हुआ था। सिर्फ़ बाउंड्रीवॉल थी दोनों के बीच....और एक साझा कुआ। दोनों विद्यालय पन्ना राजघराने की महारानी मनहर कुमारी के नाम पर पन्ना महाराज ने बनवाए थे। शासकीय मनहर कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में मैंने आगे की पढ़ाई की लेकिन उसकी चर्चा किसी अगली पोस्ट में। मेरी मां वहां हिंदी की लेक्चरर थीं। वहां के अनुभव बाद में....

लंच बॉक्स की चोरी और जे बी मंघाराम के बिस्किट के डब्बे :
     उन दिनों के दो-तीन अनुभव ऐसे हैं जो मेरी स्मृति पर हमेशा के लिए दर्ज़ हो कर रह गए और उन्होंने मेरे जीवन पर गहरा असर डाला। उनमें से एक घटना थी मेरे लंच बॉक्स की चोरी की। उन दिनों हम दोनों बहनों के लिए मां बिस्कुट के टिन के डब्बे खरीद दिया करती थीं। दोनों के लिए अलग-अलग डब्बे, ताकि आपस में किसी प्रकार का कोई झगड़ा न होने पाए। यद्यपि हम दोनों बहनों के बीच खाने-पीने को लेकर कभी कोई झगड़ा नहीं हुआ फिर भी मां शायद कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थीं। उन दिनों जेबी मंघाराम के बिस्कुट के डब्बे चलन में थे, जिन पर बहुत ही खूबसूरत चित्र हुआ करते थे। मां ने अलग से लंच बॉक्स खरीदने के बजाए उन्हीं बिस्कुट के डिब्बों में से एक को मेरा लंच बॉक्स बना दिया था और मैं उसी में अपना लंच स्कूल ले जाया करती थी।  शायद यह घटना तीसरी या चौथी कक्षा की है...  मेरी कक्षा में एक लड़की थी जिसे दूसरों के बस्ते से सामान निकाल लेने की यानी चोरी करने की आदत थी। हमें उसके बारे में पुख़्ता जानकारी नहीं थी लेकिन अंदाज़ा ज़रूर था। फिर भी उसे कभी कोई रंगे हाथों नहीं पकड़ पाया और इसीलिए वह हमेशा सज़ा से बचती रही। एक दिन उस लड़की ने मेरे लंच बॉक्स पर भी हाथ साफ़ कर दिया। यानी मेरा खाने का डब्बा ही चुरा लिया। वह खूबसूरत चित्र वाला बिस्कुट का डिब्बा जो था। ऐसा लंच बॉक्स मेरी किसी भी सहपाठी के पास नहीं था। इसीलिए वह सब में लोकप्रिय भी था। निश्चित रूप से उस चोर लड़की की नजर भी मेरे उस लंच बॉक्स पर कई दिनों से रही होगी और मौका पाकर उसने अपने हाथ की सफाई दिखा ही दी। घर लौटने पर जब मां ने बस्ता टटोला तो उन्हें मेरा डब्बा नहीं मिला। उन्होंने मुझसे पूछा तो मैंने उन्हें बताया कि मैंने तो खाना खाने के बाद याद से अपना डब्बा अपने बस्ते में रख लिया था। ख़ैर, मां ने दूसरे दिन दूसरे डब्बे में मेरे लिए खाना रख दिया। वह दूसरा डब्बा भी बिस्कुट का डब्बा ही था। सुंदर से चित्र वाला। दो-तीन दिन बाद वह भी मेरे बस्ते से चोरी हो गया। मां को जब इसका पता चला तो वह मुझ पर भी गुस्सा हुई कि मैं अपना सामान ठीक से क्यों नहीं रखती हूं। बतौर सज़ा उन्होंने यह तय किया कि मैं प्लास्टिक के लिफाफे में यानी प्लास्टिक की थैली में अपना लंच ले जाया करूंगी। उन दिनों प्लास्टिक की थैलियों यानी पन्नियों का इस क़दर चलन नहीं था। वह थैली किसी पैकिंग के रूप में आई थी। मां उसी प्लास्टिक की थैली में  मेरा लंच  पैक करके  मेरे बस्ते में रख दिया करतीं। लेकिन लंचटाईम में जब मेरी सारी सहेलियां  अपने-अपने लंच बॉक्स लेकर खाना खाने बैठतीं तो मुझे उनके बीच अपनी प्लास्टिक की थैली निकालते हुए शर्म महसूस होती। मैं अलग जाकर एक कोने में बैठ कर खाना खा लिया करती।  मेरी इस हरकत पर मेरी किसी शिक्षिका का ध्यान गया और उन्होंने मेरी मां को इस बारे में बताया कि मैं आजकल अलग-थलग बैठकर खाना खाती हूं। जब मां ने मुझसे पूछा तो मैंने उन्हें सारी बातें सच-सच बता दी कि मुझे प्लास्टिक की थैली में खाना ले जाने में शर्म आती है। इसके बाद मां ने मुझे पुनः एक बिस्किट का डिब्बा दिया और इस हिदायत के साथ कि मैं उसका पूरा ख़्याल रखूंगी।  मैंने उन्हें विश्वास दिलाया और उनका विश्वास क़ायम भी रखा। नया डब्बा मिलने के बाद से मैं खाना खाने के बाद  अपने बस्ते का पूरा ध्यान रखती कि मेरे बस्ते से कोई भी सामान चोरी न हो पाए।  

       लंचबॉक्स की चोरी की यह घटना हमेशा के लिए मेरे मन में छप कर रह गई और मुझे ऐसे छात्रों से चिढ़ होने लगी जो दूसरों के बस्तों से सामान चुरा लेते थे। एक आध बार तो मैंने किसी को इस तरह की हरक़त करते देखा तो उसकी शिक़ायत भी कर दी। भले ही बदले में उस सहपाठी से मेरी लड़ाई हुई और बोलचाल भी बंद हो गई यानी 'कट्टी'हो गई। शायद यह भी एक ऐसी घटना थी जिसने बचपन से ही मेरे भीतर ग़लत बात की पीड़ा महसूस करने और ग़लत का विरोध करने का साहस जगाया।
     दूसरी घटना... ऊंहूं...आज नहीं, बाद में किसी और दिन....🙋✍️🙏

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स्त्री, प्रेम, अधिकार और समाज अर्थात् विमर्श ‘लिव इन रिलेशन’ का - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

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Dr (Miss) Sharad Singh
लेख

स्त्री, प्रेम, अधिकार और समाज
अर्थात् विमर्श ‘लिव इन रिलेशन’ का

- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

‘लिव इन रिलेशन’ महानगरों में एक नई जीवनचर्या के रूप में अपनाया जा रहा है। यह माना जाता है कि स्त्री इसमें रहती हुई अपनी स्वतंत्रता को सुरक्षित अनुभव करती है। उसे जीवनसाथी द्वारा दी जाने वाली प्रताड़ना सहने को विवश नहीं होना पड़ता है। वह स्वयं को स्वतंत्र पाती है। लेकिन महानगरों में अपरिचय का वह वातावरण होता है जिसमें पड़ोसी परस्पर एक-दूसरे को नहीं पहचानते हैं। कस्बों में सामाजिक स्थिति अभी धुर पारंपरागत है। ऐसे वातावरण में एक स्त्री ‘लिव इन रिलेशन’ को अपनाती है तो उसे क्या मिलता है....और वह क्या खोती है ? और प्रेम की भावना का क्या होता है? यही तो विमर्श है ‘लिव इन रिलेशन’ का।

‘प्रेम’ एक जादुई शब्द है। कोई कहता है कि प्रेम एक अनभूति है तो कोई इसे भावनाओं का पाखण्ड मानता है। जितने मन, उतनी धारणाएं।
मन में प्रेम का संचार होते ही एक ऐसा केन्द्र बिन्दु मिल जाता है जिस पर सारा ध्यान केन्द्रित हो कर रह जाता है। सोते-जागते, उठते-बैठते अपने प्रेम की उपस्थिति से बड़ी कोई उपस्थिति नहीं होती, अपने प्रेम से बढ़ कर कोई अनुभूति नहीं होती और अपने प्रेम से बढ़ कर कोई मूल्यवान वस्तु नहीं होती। निःसंदेह प्रेम एक निराकार भावना है किन्तु देह में प्रवेश करते ही यह आकार लेने लगती है। एक ऐसा आकार जिसमें स्त्री मात्र स्त्री हो जाती है और पुरुष मात्र पुरुष। इसीलिए स्त्री और पुरुष का बिना किसी सामाजिक बंधन के भी साथ-साथ रहना आसान हो जाता है।
प्रश्न उठता है कि पृथ्वी गोल है इसलिए दो विपरीत ध्रुव टिके हुए हैं अथवा दो विपरीत ध्रुवों के होने से पृथ्वी अस्तित्व में है? ठीक इसी तरह प्रश्न जागता है कि प्रेम का अस्तित्व देह से है या देह का अस्तित्व प्रेम से? कोई भी व्यक्ति अपनी देह को उसी समय निहारता है जब वह किसी के प्रेम में पड़ता है अथवा प्रेम में पड़ने का इच्छुक हो उठता है। वह अपनी देह का आकलन करने लगता और उसे सजाने-संवारने लगता है। या फिर प्रेम के वशीभूत वह अपनी या पराई देह पर ध्यान देता है। पक्षी भी अपने परों को संवारने लगते हैं प्रेम में पड़ कर । यूं बड़ी उलझी हुई भावना है प्रेम। इस भावना को लौकिक और अलौकिक के खेमे में बांट कर देखने से सामाजिक दबाव कम होता हुआ अनुभव होता है। इसीलिए कबीर बड़ी सहजत से यह कह पाते हैं कि -
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, हुआ न पंडित कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।।

प्रेम कोई पोथी तो नहीं जिसे पढ़ा जा सके, फिर प्रेम को कैसे पढ़ा जा सकता है? यदि प्रेम को पढ़ा नहीं जा सकता, बूझा नहीं जा सकता तो समझा कैसे जा सकेगा?

कहा तो यही जाता है कि प्रेम सोच-समझ कर नहीं किया जाता है। यदि सोच-समझ को प्रेम के साथ जोड़ दिया जाए तो लाभ-हानि का गणित भी साथ-साथ चलने लगता है। बहरहाल सच्चाई तो यही है कि प्रेम बदले में प्रेम ही चाहता है और इस प्रेम में कोई छोटा या बड़ा हो ही नहीं सकता है। जहां छोटे या बड़े की बात आती है, वहीं प्रेम का धागा चटकने लगता है।‘रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय। टूटे से फिर न जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाए।’ प्रेम सरलता, सहजता और स्निग्धता चाहता है, अहम की गांठ नहीं। इसीलिए जब प्रेम किसी सामाजिक संबंध में ढल जाता है तो प्रेम करने वाले दो व्यक्तियों का पद स्वतः तय हो जाता है। स्त्री और पुरुष के बीच का वह प्रेम जिसमें देह भी शामिल हो पति-पत्नी का सामाजिक रूप लेता है। जिसमें पति प्रथम होता है और पत्नी दोयम। यहीं पहली बार चटकता है प्रेम का सूत।
यदि पति-पत्नी के रूप में नामांकित हुए बिना ही साथ-साथ रहा जाए, खालिस सहजीवी के रूप में किन्तु इस सहजीवन में देह की अहम भूमिका हो तो प्रेम कब तक अपने मौलिक आकार में टिका रह सकता है, कठोर खुरदरे यथार्थ और शुष्क पांडित्य के धनी दिखने वाले विद्वान भी जीवन में प्रेम की पैरवी करते हैं।
हजारी प्रसाद द्विवेद्वी लिखते हैं कि ‘प्रेम से जीवन को अलौकिक सौंदर्य प्राप्त होता है। प्रेम से जीवन पवित्रा और सार्थक हो जाता है। प्रेम जीवन की संपूर्णता है।’
आचार्य रामचंद्र शुक्ल मानते थे कि ‘प्रेम एक  संजीवनी शक्ति है। संसार के हर दुर्लभ कार्य को करने के लिए यह प्यार संबल प्रदान करता है। आत्मविश्वास बढ़ाता है। यह असीम होता है। इसका केंद्र तो होता है लेकिन परिधि नहीं होती।’
क्या सचमुच परिधि नहीं होती प्रेम की? यदि प्रेम की परिधि नहीं होती है तो सामाजिक संबंधों में बंधते ही प्रेम सीमित क्यों होने लगता है? क्या इसलिए कि धीरे-धीरे देह से तृप्ति होने लगती है और प्रेम एक देह की परिधि से निकल कर दूरी देह ढूंढने लगता है, निःसंदेह इसे प्रेम की स्थूल व्याख्या कहा जाएगा किन्तु पुरुष, पत्नी और प्रेमिका के त्रिकोण का समीकरण भी जन्म ले लेता है जबकि एक प्रेयसी से ही विवाह किया गया हो। यदि देह नहीं तो अधिकार भावना वह आधार अवश्य होगी जिस पर कोई भी प्रेम त्रिकोण बना होगा। यदि प्रेमी, प्रेमी न रह जाए और प्रेयसी, प्रेयसी न रह जाए तो प्रेम कैसा? फिर उनके बीच ‘सोशल कांट्रैक्ट’हो सकता है, प्रेम का मौलिक स्वरूप नहीं। सांभवतः यही वह बिन्दु है जहां आ कर प्रेम आधारित सहजीवन भी ‘सोशल कांट्रेक्ट’ की मांग करने लगता है और सहजीवन अर्थात् ‘लिव इन रिलेशन’ की बुनियाद दरकती दिखाई पड़ती है।
प्रेमचंद ने लिखा है कि ‘मोहब्बत रूह की खुराक है। यह वह अमृतबूंद है, जो मरे हुए भावों को ज़िन्दा करती है। यह ज़िन्दगी की सबसे पाक़, सबसे ऊंची, सबसे मुबारक़ बरक़त है।’

‘लिव इन रिलेशन’ महानगरों में एक नई जीवनचर्या के रूप में अपनाया जा रहा है। यह माना जाता है कि स्त्री इसमें रहती हुई अपनी स्वतंत्रता को सुरक्षित अनुभव करती है। उसे जीवनसाथी द्वारा दी जाने वाली प्रताड़ना सहने को विवश नहीं होना पड़ता है। वह स्वयं को स्वतंत्र पाती है। लेकिन महानगरों में अपरिचय का वह वातावरण होता है जिसमें पड़ोसी परस्पर एक-दूसरे को नहीं पहचानते हैं। कस्बों में सामाजिक स्थिति अभी धुर पारंपरागत है। ऐसे वातावरण में एक स्त्री ‘लिव इन रिलेशन’ को अपनाती है तो उसे क्या मिलता है....और वह क्या खोती है ? क्या एक कस्बाई औरत ‘लिव इन रिलेशन’ में मानसिक सुकून पा सकती है?
‘लिव इन रिलेशन’ प्रेम का एक परम लौकिक रूप है। दो विपरीत लिंगी एक-दूसरे को परस्पर पसंद करते हैं, एक-दूसरे के प्रेम में भी पड़ते हैं और फिर बिना किसी सामाजिक बंधन में बंधे साथ-साथ रहने लगते हैं। एक सुखद सहजीवन। प्रेमी जोड़े के रूप में ही जीवन यापन का प्रण। 
प्रेम की परिभाषा बहुत कठिन है क्योंकि इसका सम्बन्ध अक्सर आसक्ति से जोड़ दिया जाता है जो कि बिल्कुल अलग चीज है। जबकि प्रेम का अर्थ एक साथ महसूस की जाने वाली उन सभी भावनाओं से जुड़ा है, जो मजबूत लगाव, सम्मान, घनिष्ठता, आकर्षण और मोह से सम्बन्धित हैं। प्रेम होने पर परवाह करने और सुरक्षा प्रदान करने की गहरी भावना व्यक्ति के मन में सदैव बनी रहती है। प्रेम वह अहसास है जो लम्बे समय तक साथ देता है और एक लहर की तरह आकर चला नहीं जाता। इसके विपरीत आसक्ति में व्यक्ति  पर प्रबल इच्छाएं या लगाव की भावनाएं हावी हो जाती हैं। यह एक अविवेकी भावना है जिसका कोई आधार नहीं होता और यह थोड़े समय के लिए ही कायम रहती है लेकिन यह बहुत सघन, तीव्र होती है अक्सर जुनून की तरह होती है। प्रेम वह अनुभूति है, जिससे मन-मस्तिष्क में कोमल भावनाएं जागती हैं, नई ऊर्जा मिलती है व जीवन में मीठी यादों की ताजगी का समावेश हो जाता है।  इसीलिए कहा जाता है कि पति-पत्नी के बीच प्यार ही वह डोर है, जो उन्हें एक-दूसरे से बांधे रखती है। तो फिर विवाह, फिर विवाह के बंधन की क्या आवश्यकता ?
प्रेम के बिना विवाह स्थाई बना रह सकता है और विवाह के बिना प्रेम। किन्तु कितने दिन, कितने महीने, कितने वर्ष, कुछ सच्चाइयों को जानना और मानना बहुत कष्टप्रद होता है, प्रेम को टूटते देखना भी....और उससे भी कष्टप्रद होता है प्रेम को विद्रूप होते देखना।
इसी जीवन, इसी समाज के दो प्राणी - एक सुगंधा और दूसरा रितिक। दोनों अपने जीवन को अपने ढंग से जीना चाहते थे। बिना किसी सामाजिक बंधन के। वे महानगर में नहीं थे कि उन्हें जानने-पहचानने वाले कम होते। वे कस्बे के वासी थे। ढेर सारे परिचित उनके। दोनों ने साहसिक क़दम उठाया। वे विवाह किए बिना साथ-साथ, एक ही छत के नीचे, एक ही घर, एक ही कमरे में रहने लगे, सोने, बैठने लगे। दोनों में अटूट प्रेम था। दोनों में एक-दूसरे के प्रति पर्याप्त दैहिक आकर्षण था। दोनों अपने सहजीवन से खुश थे। किन्तु उनके परिवार और समाज को यह नहीं भाया कि वे दोनों बिना किसी सामाजिक बंधन के पति-पत्नी की तरह एक साथ रहें।
दोनों ने न तो परिवार की परवाह की और न समाज की। दोनों एक दूसरे से संतुष्ट थे तो जमाना उनके ठेंगे से। मगर वास्तविकता में सब कुछ ठेंगे पर रखना इतना आसान नहीं होता है। इस सच्चाई का सामना सुगंधा और रितिक को आए दिन होने लगा। परिवारजन ने आपत्ति की, पड़ोसियों ने आपत्ति की, जिसकी उन दोनों ने परवाह नहीं की। लेकिन समाज का अत्यधिक दबाव, पीढ़ियों से चले आ रहे संस्कारों का तकाज़ा और प्रकृति प्रदत्त आकांक्षा ने उन दोनों के बीच मौजूद प्रेम के बेल के पत्ते नोंचने शुरू कर दिए। पत्तों के बिना कोई बेल भला जीवित कैसे रह सकती है, यदि प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया नहीं होगी तो बेल को जीवन-खुराक कहां से मिलेगी, यदि जीवन-खुराक नहीं मिली तो वह धीरे-धीरे एक दिन सूख जाएगा।
Dr (miss) Sharad Singh with her novel - Kasbai Simon - based on Live In Relation

सुगंधा और रितिक जब ‘लिव इन रिलेशन’ में एक हुए थे उस समय वे प्रेमी-प्रेमिका थे। लेकिन आसपास के वातावरण ने सुगंधा के भीतर मातृत्व की इच्छा और रितिक के भीतर पति का भाव जगा दिया। सुगंधा यदि मां बने तो उसके बच्चे को पिता के वैधानिक नाम की आवश्यकता पड़ेगी। यह अहसास हुआ सुगंधा को। जबकि रितिक को लगने लगा कि पत्नी के समान साथ रहने वाली सुगंधा आम पत्नी की भांति उसके कमीज़ के बटन क्यों नहीं टांकती, उसकी सेवा क्यों नहीं करती अर्थात् उनका अस्तित्व पति-पत्नी संस्करण में ढलने लगा, जबकि वे विवाह करने के विरुद्ध थे।
मानसिक दबाव प्रेम को कुचल देता है। सुगंधा और रितिक प्रेम भी कुचल गया। प्रेम का रूप विद्रूप हो गया।वह अब पहले जैसा प्रेम नहीं रहा जो चट्टान पर रखे ताज़े सुर्ख लाल गुलाब की भांति महसूस होता था। गुलाब मुरझाता गया और सुगंध विलीन होती गई। एक दिन शेष रहा गुलाब के फूल का सूखा हुआ अस्तित्व जो इस बात की गवाही दे रहा था कि कभी वह किसी के प्रेम में महका था।
ये इश्क़ नहीं आसां, बस इतना समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।

प्रेम बलात् नहीं पाया जा सकता। दो व्यक्तियों में से कोई एक यह सोचे कि चूंकि मैं फलां से प्रेम करता हूं तो फलां को भी मुझसे प्रेम करना चाहिए, तो यह सबसे बड़ी भूल है। प्रेम कोई ‘एक्सचेंज़ ऑफर’ जैसा व्यवहार नहीं है कि आपने कुछ दिया है तो उसके बदले आप कुछ पाने के अधिकारी बन गए। यदि आपका प्रेम पात्रा भी आपसे प्रेम करता होगा तो वह स्वतः प्रेरणा से प्रेम के बदले प्रेम देगा, अन्यथा आपको कुछ नहीं मिलेगा। बलात् पाने की चाह कामवासना हो सकती है प्रेम नहीं। वहीं, दो प्रेमियों के बीच कामवासना प्रेम का अंश हो सकती है सम्पूर्ण प्रेम नहीं। यदि प्रेम स्वयं ही अपूर्ण है तो वह प्रसन्नता, आल्हाद कैसे देगा, वह दुख देगा, खिझाएगा और निरन्तर हठधर्मी बनाता चला जाएगा। प्रेम की इसी विचित्रता को रसखान ने इन शब्दों में लिखा है -
प्रेम रूप दर्पण अहे, रचै अजूबो खेल।
या में अपनो रूप कछु, लखि परिहै अनमेल।।   
हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन।
याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन ।।

सिमोन द बोउवार और ज्यां पाल सात्र्र सन् 1929 में पहली बार एक-दूसरे से मिले थे। दोनों का बौद्धिक स्तर परस्पर अनुरुप था। वे प्रेम में समता स्वतंत्रता और सहअस्तित्व में विश्वास रखते थे। सिमोन का कहना था कि समाज स्त्री को स्त्री और पुरुष को पुरुष बना देता है। ‘स्त्री पैदा नहीं होती’ उसे बनाया जाता है’। सिमोन ग़लत नहीं थीं। नन्हीं बच्ची को खेलने के लिए बार्बी डॉल दी जाती है तो नन्हें बच्चे को क्रिकेट का बल्ला या खिलौने की बंदूक। थोड़ा बड़ा होने पर निर्धारित कर दिया जाता है कि बच्ची को घर से बाहर खेलने नहीं जाना है, उसे अकेले भी कहीं नहीं जाना है जबकि बच्चा बाहर जा कर खेल सकता है, वह अकेले कहीं भी आ-जा सकता है। लो, तैयार हो गई एक स्त्री और एक पुरुष। सामाजिक सांचे में ढल कर तैयार। सिमोन को यह सांचा कभी पसंद नहीं आया। वे ज्यां पाल सात्र्र के साथ ‘लिव इन रिलेशन’ को जिया। वे आदर्श बनीं हर आधुनिक स्त्री की। किन्तु भारतीय सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश की घनी बुनावट में विवाह की अनिवार्यता आज भी यथावत बनी हुई है।
भारतीय सामाजिक परिवेश में दो ही तबके ‘लिव इन रिलेशन’ को दबंगई से जी पाते हैं, या तो एलीट वर्ग या फिर झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले स्त्री-पुरुष। मध्यम वर्ग अपने ही बनाए नियमों की चक्की में पिसता रहता है। एलीट वर्ग एक फैशन की तरह प्रेम और सहजीवन के तादात्म्य को बनाए रखता है। वहीं दूसरी ओर झुग्गी बस्ती की स्त्री अपने प्रेमी के घर जा ‘बैठने’ से नहीं हिचकती है। निःसंदेह, पीड़ा उसे भी होती है, मन उसका भी दुखता है। लेकिन उसके भीतर प्रेम को पा लेने का वह जुनून होता है जो उसके भीतर समाज से टकराने की ताक़त पैदा कर देता है। बिना विवाह किए वैवाहिक जैसे संबंध में रहने के लिए प्रेम के सूफ़ियाना स्तर का होना आवश्यक है।
सूफ़ी संत रूमी से जुड़ा एक किस्सा है कि शिष्य ने अपने गुरु का द्वार खटखटाया।
‘बाहर कौन है...’गुरु ने पूछा।
‘मैं।’शिष्य ने उत्तर दिया।
‘इस घर में मैं और तू एकसाथ नहीं रह सकते।’ भीतर से गुरू की आवाज आई।
दुखी होकर शिष्य जंगल में तप करने चला गया। साल भर बाद वह फिर लौटा। द्वार पर दस्तक दी।
‘कौन है..’फिर वही प्रश्न किया गुरु ने।
‘आप ही हैं।’ इस बार शिष्य ने जवाब दिया और द्वार खुल गया।
संत रूमी कहते हैं- ‘प्रेम के मकान में सब एक-सी आत्माएं रहती हैं। बस प्रवेश करने से पहले मैं का चोला उतारना पड़ता है।’
यह ‘मैं’ का चोला यदि न उतारा जाए और दो के अस्तित्व को प्रेम में मिल कर एक न बनने दिया जाए तो प्रेम में विद्रूपता आए बिना नहीं रहती है फिर चाहे विवाहित संबंध में रहा जाए या लिव इन रिलेशन में या फिर महज प्रेमी-प्रेमिका के रूप में अलग-अलग छत के नीचे रहते हुए प्रेम को जीने का प्रयास किया जाए।
जब दो व्यक्ति प्रेम की तीव्रता को जुनून की सीमा तक अपने भीतर अनुभव करें और एक-दूसरे के साथ रहने में असीम आनन्द और पूर्णता को पाएं तो वही प्रेम का अटूट और समग्र रूप कहा जा सकता है। इस प्रेम के तले कोई सामाजिक बंधन हो या न हो।
सूफी संत कवि लुतफी ने प्रेम के सच्चे स्वरूप को जिन शब्दों में व्यक्त किया है वह प्रेम के सच्चे स्वरूप और प्रेम की तीव्रता को बड़े ही सुन्दर ढंग से व्यक्त करता है -
खिलवत में सजन के  मैं  मोम की बाती हूं
यक पांव पर  खड़ी हूं  जलने पिरत पाती हूं
सब निस  घड़ी जलूंगी  जागा सूं न हिलूंगी
ना जल को क्या करूंगी अवल सूं मदमाती हूं।
Kasbai Simon - Novel Of Dr (Miss) Sharad Singh based on Live in Relation 
      किन्तु जब बात ‘‘लिव इन रिलेशन’’ की हो तो मोम की बाती बन कर दोनों पक्ष को जलना होगा दोनों को एक-दूसरे के लिए एक पांव पर खड़े होना होगा और सभी प्रकार के कष्ट सहते हुए अडिग रहना होगा अन्यथा रिलेशन से प्रेम कपूर की तरह उड़ जाएगा और साथ रहने का आधार ही बिखर जाएगा। परस्पर संबंधों में प्रेम की यही तो महत्ता है। मैंने जब अपना उपन्यास ‘‘कस्बाई सिमोन’’ लिखा तो इसी बात की पड़ताल की कि भारतीय सामाजिक परिवेश में ‘लिव इन रिलेशन’ कितना सही है, कितना ग़लत। अपने उपन्यास का एक बहुत छोटा-सा अंश यहां विचारार्थ रख रही हूं -
‘ये किसने कहा कि मैं तुमसे शादी करना चाहती हूं? कि तुमसे बच्चे पैदा करना चाहती हूं? तुम्हें पसंद करती हूं.....बस, इसीलिए तुम्हारा साथ चाहती हूं।’ मैंने कहा था।
‘फिर पसंद? प्रेम नहीं?’
‘हां-हां, वहीं...प्रेम....प्रेम करती हूं तुमसे।’
‘मेरे साथ रहोगी...बिना शादी किए? लिव इन रिलेशन?’ रितिक ने चुनौती-सी देते हुए पूछा था और मैं रितिक के जाल में फंस गई थी। कारण कि मैं अपने जीवन को अपने ढंग से जीना चाहती थी और ‘लिव इन रिलेशन’ वाला फंडा मुझे अपने ढंग जैसा लगा था। बिना विवाह किए किसी पुरुष के साथ पति-पत्नी के रूप में रहने की कल्पना ने मुझे रोमांचित कर दिया था। इसमें मुझे अपनी स्वतंत्रता दिखाई दी। मैं जब चाहे तब मुक्त हो सकती थी....वस्तुतः मुझे तो मुक्त ही रहना था....बंधन तो वहां होता जहां किसी नियम का पालन किया जाता।
बंधन!...... बंधन के जो रूप मैंने अब तक देखे थे उनमें स्त्री को ही बंधे हुए पाया था। पुरुष तो बंध कर भी उन्मुक्त था...पूर्ण उन्मुक्त। वह पत्नी के होते हुए भी एक से अधिक प्रेमिकाएं रख सकता था, रखैलें रख सकता था, यहां-वहां फ्लर्ट कर सकता था...फिर भी समाज की दृष्टि में वह क्षमा योग्य ही बना रहता। सच तो यह है कि मैंने अपने बचपन में ही बंधन को तार-तार होते देखा था। वैवाहिक बंधन का विकृत रूप ही तो था वह जो किसी फॉसिल के समान मेरे मन की चट्टानों के बीच दबा हुआ था, एकदम सुरक्षित। 
- तो यह है एक छोटा-सा अंश मेरे उपन्यास ‘कस्बाई सिमोन’ का, जो अनेक प्रश्न सामने रख जाता है।                           
‘लिव इन रिलेशन’ महानगरों में एक नई जीवनचर्या के रूप में अपनाया जा रहा है। यह माना जाता है कि स्त्री इसमें रहती हुई अपनी स्वतंत्रता को सुरक्षित अनुभव करती है। उसे जीवनसाथी द्वारा दी जाने वाली प्रताड़ना सहने को विवश नहीं होना पड़ता है। वह स्वयं को स्वतंत्रा पाती है। लेकिन महानगरों में अपरिचय का वह वातावरण होता है जिसमें पड़ोसी परस्पर एक-दूसरे को नहीं पहचानते हैं। कस्बों में सामाजिक स्थिति अभी धुर पारंपरागत है। ऐसे वातावरण में एक स्त्री यदि ‘लिव इन रिलेशन’ को अपनाती है तो उसे क्या मिलता है?... और वह क्या खोती है?....क्या एक कस्बाई औरत ‘लिव इन रिलेशन’ में मानसिक सुकून पा सकती है? उस किन-किन स्तरों पर समझौते करने पड़ते हैं? बड़ा ही कठिन विमर्श है यह।
यह माना जाता है कि स्त्री को आर्थिक अधिकार पुरुषों के बराबर न होने के कारण विवाहिताएं अपने पति द्वारा छोड़ दिए जाने से भयभीत रहती हैं। वे जानती हैं कि परितक्त्या स्त्री को समाज सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता है। लेकिन यदि वह आर्थिक रूप से समर्थ हो, स्वयं कमाती हो तो क्या उसे समाज में सम्मान मिल सकता है? यदि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद महिलाओं की एक पीढ़ी का बहुमुखी विकास हो चुका होता तो आज देश में महिलाओं की दशा का परिदृश्य कुछ और ही होता। उस स्थिति में न तो दहेज हत्याएं होतीं, न मादा-भ्रूण हत्या और न महिलाओं के विरुद्ध अपराध का ग्राफ इतना ऊपर जा पाता। उस स्थिति में झारखण्ड या बस्तर में स्त्रियों को न तो ‘डायन’ घोषित किया जाता और न तमाम राज्यों में बलात्कार की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हो पाती। महिलाओं को कानूनी सहायता लेने का साहस तो रहता। 
  स्त्री की शिक्षा पर उसका परिवार उसका दस प्रतिशत भी व्यय नहीं करता है जितना वह उस स्त्री के विवाह में दिखावे और दहेज के रूप में व्यय कर देता है। परिवार के लिए पुत्र का महत्व पुत्री की अपेक्षा आज भी अधिक है। स्त्री का दैहिक शोषण आज भी आम बात है।  घर, कार्यस्थल, सड़क, परिवहन, चिकित्सालय, मनोरंजन स्थल आदि कहीं भी स्त्री स्वयं को पूर्ण सुरक्षित अनुभव नहीं कर पाती है। अभी स्त्रियों को अपना भविष्य संवारने के लिए बहुत संघर्ष करना है। उन्हें अभी पूरी तरह सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, राजनीतिक एवं मातृत्व का अधिकार प्राप्त करना है जिस दिन उसे अपने सारे अधिकार मिल जाएंगे जो कि देश की नागरिक एवं मनुष्य होने के नाते उसे मिलने चाहिए, उस दिन एक स्वस्थ समाज की कल्पना भी साकार हो सकेगी। जिसमें स्त्री और पुरुष सच्चे अर्थों में बराबरी का दर्जा रखेंगे।                       
हर औरत अपने अस्तित्व को जीना चाहती है, पुरुष के साथ किन्तु अपने अधिकारों के साथ। पुरुष से अधिक नहीं तो पुरुष से कम भी नहीं। क्योंकि कम होने की पीड़ा सदियों से झेलती आ रही है और अब बराबर होने का सुख पाना चाहती है। यही ललक उसे ‘लिव इन रिलेशन’ के प्रति आकर्षित करती है। किन्तु यह तो जांचना आवश्यक है कि इसमें भी स्त्री क्या-क्या खोती है और क्या-क्या पाती है?  ‘लिव इन रिलेशन’ वस्तुतः प्रेम और अधिकार का द्वन्द्व है जिसकी तह तक पहुंचना हर स्त्री के लिए आवश्यक है। इस प्रकार के संबंधों का एक पक्ष और है जो अकसर समाचारपत्रों में समाचार बन कर सामने आता है-‘‘युवक ने युवती को शादी का झांसा देकर लिव इन रिलेशन में रखा और महीनों तक दैहिक शोषण करता रहा और जब उसने शादी से इनकार कर दिया तो युवती बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज़ कराने थाने जा पहुंची।’’
ऐसे समाचारों को पढ़ कर तय करना कठिन हो जाता है कि यह प्रेम से उत्पन्न लिव इन रिलेशन की भावना थी अथवा विवाह का उद्देश्य ले कर सोची-समझी व्यूह रचना। यानी जो पक्ष इस व्यूह रचना में असफल हुआ उसने दूसरे को कटघरे में खड़ा कर दिया। वस्तुतः ऐसे मामलों में ‘लिव इन रिलेशन’ की संकल्पना कहीं होती ही नहीं है। लिव इन रिलेशन के विमर्श को अपना महत्व समझाने के लिए ही भारतीय समाज में अभी लम्बी यात्रा करनी पड़ेगी। क्योंकि लिव इन रिलेशन की वास्तविक संकल्पना यौनिक नहीं मानसिक है जिसमें पारस्परिक प्रेम ही केन्द्र में स्थापित है और देह अनुपस्थित है। यह स्वच्छंदता नहीं है जैसा कि अकसर मान लिया जाता है, यह तो मानसिक परिपक्वता की चरमस्थिति है। किन्तु जो इसे इसके इस अर्थ में नहीं समझ सकता है उसे ऐसे संबंध में पड़ कर संत्रास ही झेलना पड़ेगा। 

भारत में अंग्रेजों के शासनकाल में पहली बार सन् 1927 और फिर सन् 1929 में लिव इन रिलेशनशिप के सवाल पर प्रीवी काउंसिल ने न्यायिक व्यवस्था दी थी। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने प्रीवी काउंसिल की व्यवस्था के आलोक में ही सन् 1952 और सन् 1978 में एक बार फिर न्यायिक व्यवस्था दी। माननीय उच्चतम न्यायालय यह कह चुका है कि विवाह के बिना साथ रहना और सहमति के साथ शारीरिक सबंध बनाना कोई भारतीय दंड संहिता में ”अपराध” ” नहीं है। वहीं, भारतीय दंड संहिता में एक पति पत्नि के बीच बिना सहमति के सहवास को बलात्कार माना गया है जो पत्नी के रूप में रहने वाली स्त्री के व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा पर आधारित है। इसके लिए आवाश्यकतानुसार भारतीय दंड संहिता की धारा 375 एवं 376 में संशोधन किया जा चुका है। सन् 2018 मंे देश के सर्वोच्च न्यायालय ने लिव इन रिलेशनशिप को वैध मानते हुए इस पर अपना फैसला सुनाया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि शादी के बाद भी वर या वधू दोनों में से किसी की उम्र विवाह योग्य नहीं होती है तो वे लिव इन रिलेशनशिप में एक-दूसरे के साथ रह सकते हैं। जिससे उनकी शादी पर कोई असर नहीं पड़ेगा। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर किसी युवक की उम्र शादी योग्य यानि 21 साल नहीं हुई है और उसकी शादी कर दी जाती है तो वह अपनी पत्नी के साथ लिव इन रह सकता है। साथ ही यह भी फैसला सुनाया है कि यह लड़का-लड़की पर निर्भर है कि जब उनकी उम्र शादी योग्य हो जाए तो वे फिर से विवाह करना चाहते है या नहीं। या ऐसे ही इस रिश्ते को निभाना चाहेंगे। पारिवारिक संबंधों के नवसंरचना की दिशा में यह एक कानूनी छलांग थी जिसने एक ही झटके में कई दरवाजे खोल दिए। लिव इन रिलेशनशिप को आज भी हमारा समाज एक कुरिवाज के रूप में मानता है। जिसपर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जीवनसाथी चुनने का अधिकार युवक-युवती से कोई नहीं छीन सकता। चाहे फिर वह कोर्ट हो, कोई संस्था या कोई संगठन ही क्यों न हो। जिसके लिए घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 का कानून सार्थक साबित होगा। कोर्ट ने कहा कि अदालत का काम है कि वह निष्पक्ष निर्णय ले, न कि एक मां की तरह भावनाओं में बहे और न ही एक पिता की तरह अंहकारी बने।
Kasbai Simon - Novel Of Dr (Miss) Sharad Singh 
समाज के भय से कई बार प्रेम संबंधों को कानून का सहारा लेना पड़ता है। ऐसा ही के मामला अप्रैल 2017 को केरल में देखने को मिला था। जहां एक 19 वर्षीय युवती की शादी 20 साल के युवक के साथ हुई। शादी के योग्य होने में लड़के की उम्र एक साल कम थी। इस पर लड़की के पिता ने दूल्हे पर अपहरण का केस दर्ज करवा दिया था। केस केरल हाईकोर्ट पहुंची तो अदालत ने शादी को रद्द कर दिया और लड़की को वापिस पिता के पास भेज दिया। इसके बाद वर पक्ष ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। पीड़ित पक्ष की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने लिव इन पर अहम फैसला सुनाया और केरल हाईकोर्ट का फैसला रद्द कर दिया। कोर्ट ने लिव इन रिलेशनशिप को वैध मानते हुए कहा कि दोनों की शादी हिंदू धर्म के मुताबिक हुई है। इसलिए इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में लिव इन ही इसका उचित विकल्प है।
लेकिन प्रश्न उठता है कि प्रेम संबंध को समाज या कानून क्यों तय करे?  ये वे दो ध्रुव हैं जो प्रेम संबंधों पर स्त्री के पक्ष में अपना दृष्टिकोण और अपनी-अपनी व्याख्या रखते हैं। दोनों स्त्रियों के मान, सम्मान और सुरक्षा का दावा करते हैं लेकिन एकदम उत्तर और दक्षिण की भांति। वस्तुतः अभी भारतीय समाज इस तरह के संबंधों को समझने और आत्मसात करने में अभी पूरी तरह सक्षम नहीं है और तब तक नहीं होगा जब तक कि स्त्रियों में अपने अधिकारों को ले कर असुरक्षा की भावना रहेगी। जहां असुरक्षा की भावना रहेगी वहां प्रेम सशंकित अवस्था में रहेगा। यदि प्रेम विश्वास के धरातल पर खड़ा हो तो विवाह संबंध भी मात्र समझौता (एडजेस्टमेंट) नहीं होता है। वह एक स्थाई संबंध होता है जो जीवन को सामाजिक सहजता प्रदान करता है। लेकिन बात फिर घूमफिर कर वही आती है कि यदि स्त्री को उसका सम्मान और अधिकार वास्तविक रूप में न मिले तो वह विकल्पों की ओर बढ़ने को विवश होती रहेगी और छली जाती रहेगी तथा लिव इन रिलेशन के रास्ते में अपनी स्वतंत्रता ढूढती रहेगी। मात्र लांछन कोई हल नहीं है। यदि यह भटकाव रोकना है तो समाज को एक बेटी, एक बहन, एक पत्नी और एक मां के रूप में मौजूद स्त्री के वास्तविक अधिकारों को समझना और स्थापित करना होगा, तभी सामाजिक एवं पारिवारिक स्तर पर स्त्री-पुरुष का पारस्परिक प्रेम जीवित रहेगा और संबंधों की सुगंध समाज में प्राणवायु का संचार करती रहेगी।
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डॉ (सुश्री) शरद सिंह 
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मोबाः 9425192542
drsharadsingh@gmail.com




गोखले के सानिंध्य में गांधी के तीन माह - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

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Dr (Miss) Sharad Singh
लेख

गोखले के सानिंध्य में गांधी के तीन माह
 - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

(साहित्यकार, स्तम्भकार एवं संपादक। लेखिका ने महात्मा गांधी, महामना मदनमोहन मालवीय, सरदार वल्लभ भाई पटेल, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय तथा अटल बिहारी वाजपेयी सहित छः राष्ट्रवादी व्यक्तित्वों की जीवनियां लिखी हैं।)
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भारतीय इतिहास में एक ऐसा वैश्विक व्यक्ति हुआ जिसने राजनीति को सात्विक बनाने के लिए अपने जीवन की कभी परवाह नहीं की। वे व्यक्ति थे महात्मा गांधी अर्थात् मोहन दास करमचंद गांधी अर्थात् राष्ट्रपिता महात्मा गांधी। गांधी जी गोपालकृष्ण गोखले को अपना गुरु मानते थे। यह मान्यता उन्होने गोखले के सानिंध्य में तीन माह व्यतीत करने के बाद दी। गांधी जी प्रथम दृष्टि में धारणा बना लेने वाले व्यक्तियों में से नहीं थें वे जांच-परख कर, परिस्थितियों एवं विचारों को अनुभूत करने के बाद ही कोई धारणा निर्धारित करते थे। 
Rashtravadi Vyaktitva Mahatma Gandhi written by Dr (Miss) Sharad Singh
सन् 1906 को दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता में सम्पन्न होने वाले कांग्रेस के बाइसवें अधिवेशन में शामिल होने के लिए गांधी जी कलकत्ता पहुंचे। कलकत्ता अधिवेशन के अनुभव उनके लिए प्रियकर तो नहीं रहे किन्तु उन्हें अनेक ऐसे अनुभव हुए जिन्होंने उनके सम्पूर्ण जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। अधिवेशन के उपरांत अन्य कांग्रेसी नेता अपने-अपने क्षेत्रों में लौट गए किन्तु गांधी जी कलकत्ता में ही रुके रहे। वे वहां रुककर दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीयों के पक्ष में समर्थन जुटाना चाहते थे। गांधी जी कुछ दिन ‘इंडिया क्लब’ में ठहरे। गोपाल कृष्ण गोखले ने युवा गांधी की योग्यता को पहचान लिया। वे गांधी जी को हठपूर्वक अपने साथ अपने निवास पर ले गये। लगभग तीन माह तक गांधी जी गोखले के घर रुके। इस दौरान गांधी जी ने जो अनुभव प्राप्त किए, वे उनके लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण थे। उन अनुभवों ने गांधी जी के विचारों को एक नया मोड़ दिया। गोखले के निवास पर व्यतीत किए गए अपने तीन महीनों के अनुभवों के बारे में उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है-
Mahatma Gandhi with Gopal Krishna Gokhale

पहला महीना 
‘‘पहले ही दिन गोखले ने मुझे यह अनुभव न करने दिया कि मैं मेहमान हूं। उन्होंने मुझे अपने सगे भाई की तरह रखा। मेरी सब आवश्यकताएं जान लीं और उनके अनुकूल सारी व्यवस्था कर दी। सौभाग्य से मेरी आवश्यकताएं थोड़ी ही थीं। मैंने अपना सब काम स्वयं कर लेने की आदत डाली थी, इसलिए मुझे दूसरों से बहुत थोड़ी सेवा लेनी होती थी। स्वावलम्बन की मेरी इस आदत की, उस समय की मेरी पोशाक आदि की, सफाई की, मेरे उद्यम की और मेरी नियमितता की उन पर गहरी छाप पड़ी थी और इन सबकी वे इतनी तारीफ करते थे कि मैं घबरा उठता था।
‘मुझे यह अनुभव न हुआ कि उनके पास मुझसे छिपाकर रखने लायक कोई बात थी। जो भी बड़े आदमी उनसे मिलने आते, उनका मुझसे परिचय कराते थे। ऐसे परिचयांे में आज मेरी आंखांे के सामने सबसे अधिक डाॅ. प्रफुल्लचन्द्र राय आते हंै। वे गोखले के मकान के पास ही रहते थे और कह सकता हूं कि लगभग रोज ही उनसे मिलने आते थे।
‘ये प्रोफेसर राय हैं। इन्हें हर महीने आठ सौ रुपये मिलते हैं। ये अपने खर्च के लिए चालीस रुपये रखकर बाकी सब सार्वजनिक कामों में देते हैं। इन्होंने ब्याह नहीं किया है और न करना चाहते हैं।’ इन शब्दों में गोखले ने मुझसे उनका परिचय कराया।
‘आज के डाॅ. राय और उस समय के प्रो. राय में मैं थोड़ा ही फर्क पाता हूं। जो वेश-भूषा उनकी तब थी, लगभग वही आज भी है। हां, आज वे खादी पहनते हैं, उस समय खादी थी ही नहीं। स्वदेशी मिल के कपड़े रहे होंगे। गोखले और प्रो. राय की बातचीत सुनते हुए मुझे तृप्ति ही न होती थी, क्योंकि उनकी बातें देशहित की ही होती थीं अथवा कोई ज्ञानचर्चा होती थी। कई दुःखद भी होती थीं क्योंकि उनमें नेताओं की टीका रहती थी। इसलिए जिन्हें मैंने महान योद्धा समझना सीखा था, वे मुझे बौने लगने लगे।
‘गोखले की काम करने की रीति से मुझे जितना आनन्द हुआ, उतनी ही शिक्षा भी मिली। वे अपना एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाने देते थे। मैंने अनुभव किया कि उनके सारे काम देशकार्य के निमित्त से ही थे। सारी चर्चाएं भी देशकार्य की खातिर ही होती थीं। उनकी बातों में मुझे कहीं मलिनता, दम्भ अथवा झूठ के दर्शन नहीं हुए। हिन्दुस्तान की गरीबी और गुलामी उन्हें प्रतिक्षण चुभती थी। अनेक लोग अनेक विषयों में उनकी रुचि जगाने के लिए आते थे। उन सबको वे एक ही जवाब देते थे, आप यह काम कीजिए। मुझे अपना काम करने दीजिए। मुझे तो देश की स्वाधीनता प्राप्त करनी है। उसके मिलने पर ही मुझे दूसरा कुछ सूझेगा। इस समय तो इस काम से मेरे पास एक क्षण भी बाकी नहीं बचता।
‘रानाडे के प्रति उनका पूज्यभाव बात-बात में देखा जा सकता था। ‘रानाडे यह कहते थे’, ये शब्द तो उनकी बातचीत में लगभग ‘सूत्र वाक्य’ जैसे हो गए थे। मैं वहां था, उन्हीं दिनों रानाडे की जयन्ती (अथवा पुण्यतिथि, इस समय ठीक याद नहीं है) पड़ी थी। ऐसा लगा कि गोखले उसे हमेशा मनाते थे। उस समय वहां मेरे सिवा उनके मित्र प्रो. काथवटे और दूसरे एक सज्जन थे, जो सब-जज थे। इनको उन्होंने जयन्ती मनाने के लिए निमंत्रित किया और उस अवसर पर उन्होंने हमें रानाडे के अनेक संस्मरण सुनाए। रानाडे, तैलंग और मांडलिक की तुलना भी की। मुझे स्मरण है कि उन्होंने तैलंग की भाषा की प्रशंसा की थी। सुधारक के रूप में मांडलिक की स्तुति की थी। अपने मुवक्किल की वे कितनी चिन्ता रखते थे, इसके दृष्टान्त के रूप में यह किस्सा सुनाया कि एक बार रोज की ट्रेन छूट जाने पर वे किस तरह स्पेशल ट्रेन से अदालत पहुंचे थे और इस तरह रानाडे की चैमुखी शक्ति का वर्णन करके उस समय के नेताओं में उनकी सर्वश्रेष्ठता सिद्ध की थी। रानाडे केवल न्यायमूर्ति नहीं थे, अर्थशास्त्री थे, सुधारक थे। सरकारी जज होते हुए भी वे कांग्रेस में दर्शक की तरह निडर भाव से उपस्थित होते थे। इसी तरह उनकी बुद्धिमत्ता पर लोगों को इतना विश्वास था कि सब उनके निर्णय को स्वीकार करते थे। यह सब वर्णन करते हुए गोखले के हर्ष की सीमा न रहती थी।
गोखले घोड़ागाड़ी रखते थे। मैंने उनसे इसकी शिकायत की। मैं उनकी कठिनाइयां समझ नहीं सका था। पूछा, ‘‘आप सब जगह ट्राम में क्यांे नहीं जा सकते? क्या इससे नेतावर्ग की प्रतिष्ठा कम होती है?’’
कुछ दुःखी होकर उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘क्या तुम भी मुझे पहचान न सके? मुझे बड़ी धारासभा से जो रुपया मिलता है, उसे मैं अपने काम में नहीं लाता। तुम्हें ट्राम में घूमते देखकर मुझे ईष्र्या होती है पर मैं वैसा नहीं कर सकता। जितने लोग मुझे पहचानते हैं, उतने ही जब तुम्हें पहचानने लगेंगे, तब तुम्हारे लिए भी ट्राम में घूमना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य हो जाएगा। नेता जो कुछ करते हैं, सो मौज-शौक के लिए ही करते हैं, यह मानने का कोई कारण नहीं है। तुम्हारी सादगी मुझे पसन्द हैं। मैं यथासम्भव सादगी से रहता हूं पर तुम निश्चित मानना कि मुझ जैसों के लिए कुछ खर्च अनिवार्य है।’’
‘‘इस तरह मेरी यह शिकायत तो ठीक ढंग से रद्द हो गयी पर दूसरी जो शिकायत मैंने की, उसका कोई सन्तोषजनक उत्तर वे नहीं दे सके। मैंने कहा पर आप टहलने भी तो ठीक से नहीं जाते। ऐसी दशा में आप बीमार रहे तो इसमें आश्चर्य क्या? क्या देश के काम में से व्यायाम के लिए भी फुरसत नहीं मिल सकती?’’
जवाब मिला, ‘‘तुम मुझे किस समय फुरसत में देखते हो कि मैं घूमने जा सकूं?’’
मेरे मन में गोखले के लिए इतना आदर था कि मैं उन्हें प्रत्युत्तर नहीं देता था। ऊपर के उत्तर से मुझे सन्तोष नहीं हुआ था, फिर भी चुप रहा। मैंने यह माना है और आज भी मानता हूं कि कितने ही काम होने पर भी जिस तरह हम खाने का समय निकाले बिना नहीं रहते, उसी तरह व्यायाम का समय भी हमें निकालना चाहिए। मेरी यह नम्र राय है कि इससे देश की सेवा अधिक ही होती है, कम नहीं।
Gopal Krishna Gokhale

दूसरा महीना
‘गोखले की छायातले रहकर मैंने सारा समय घर में बैठकर नहीं बिताया। दक्षिण अफ्रीका के अपने ईसाई मित्रें से मैंने कहा था कि मैं हिन्दुस्तान के ईसाइयों से मिलूंगा और उनकी स्थिति की जानकारी प्राप्त करूंगा। मैंने कालीचरण बैनर्जी का नाम सुना था। वे कांग्रेस के कामों में अगुआ बनकर हाथ बंटाते थे, इसलिए मेरे मन में उनके प्रति आदर था। साधारण हिन्दुस्तानी ईसाई कांग्रेस से और हिन्दू-मुसलमानों से अलग रहा करते थे। इसलिए उनके प्रति मेरे मन में जो अविश्वास था, वह कालीचरण बैनर्जी के प्रति नहीं था। मैंने उनसे मिलने के बारे में गोखले से चर्चा की। उन्होंने कहा, ‘‘वहां जाकर क्या पाओगे? वे बहुत भले आदमी हैं पर मेरा विचार है कि वे तुम्हें सन्तोष नहीं दे सकेंगे। मैं उन्हें भलीभांति जानता हूं। फिर भी तुम्हें जाना हो तो शौक से जाओ।’’
‘‘मैंने समय मांगा। उन्होंने तुरन्त समय दिया और मैं गया। उनके घर उनकी धर्मपत्नी मृत्युशय्या पर पड़ी थीं। घर सादा था। कांग्रेस अधिवेशन में उनको कोट-पतलून में देखा था पर घर में उन्हें बंगाली धोती और कुर्ता पहने देखा। यह सादगी मुझे पसन्द आई। उन दिनों मैं स्वयं पारसी कोट-पतलून पहनता था, फिर भी मुझे उनकी यह पोशाक और सादगी बहुत पसन्द आई। मैंने उनका समय न गंवाते हुए अपनी उलझनें पेश कीं।
उन्होंने मुझसे पूछा, ‘‘आप मानते हैं कि हम अपने साथ पाप लेकर पैदा होते हैं?’’
मैंने कहा, ‘‘जी हां।’’
‘‘तो इस मूल पाप का निवारण हिन्दू धर्म में नहीं है, जबकि ईसाई धर्म में है।’’ यूं कहकर वे बोले, ‘‘पाप का बदला मौत है। बाइबल कहती है कि इस मौत से बचने का मार्ग ईसा की शरण है।’’
मैंने ‘भगवद्गीता’ के भक्तिमार्ग की चर्चा की पर मेरा बोलना निरर्थक था। मैंने इन भले आदमी का उनकी भलमनसाहत के लिए उपकार माना। मुझे संतोष न हुआ, फिर भी इस भेंट से मुझे लाभ ही हुआ।
मैं यह कह सकता हूं कि इसी महीने मैंने कलकत्ते की एक-एक गली छान डाली। अधिकांश काम मैं पैदल चलकर करता था। इन्हीं दिनों मैं न्यायमूर्ति मित्र से मिला। सर गुरुदास बैनर्जी से मिला। दक्षिण अफ्रीका के काम के लिए उनकी सहायता की आवश्यकता थी। उन्हीं दिनांे मैंने राजा सर प्यारेमोहन मुखर्जी के भी दर्शन किए।
कालीचरण बैनर्जी ने मुझसे काली-मन्दिर की चर्चा की थी। वह मन्दिर देखने की मेरी तीव्र इच्छा थी। पुस्तक में मैंने उसका वर्णन पढ़ा था। इससे एक दिन मैं वहां जा पहुंचा। न्यायमूर्ति का मकान उसी मुहल्ले में था। अतएव जिस दिन उनसे मिला, उसी दिन काली-मन्दिर भी गया। रास्ते में बलिदान के बकरों की लम्बी कतार चली जा रही थी। मन्दिर की गली में पहंुचते ही मैंने भिखारियांे की भीड़ लगी देखी। वहां साधु-संन्यासी तो थे ही। उन दिनांे भी मेरा नियम हृष्ट-पुष्ट भिखारियांे को कुछ न देने का था। भिखारियों ने मुझे बुरी तरह घेर लिया था।
एक बाबाजी चबूतरे पर बैठे थे। उन्होंने मुझे बुलाकर पूछा, ‘‘क्यों बेटा, कहां जाते हो?’’
मैंने समुचित उत्तर दिया। उन्होंने मुझे और मेरे साथियों को बैठने के लिए कहा। हम बैठ गए।
मैंने पूछा, ‘‘इन बकरों के बलिदान को आप धर्म मानते हैं?’’
‘‘जीव की हत्या को धर्म कौन मानता है?’’
‘‘तो आप यहां बैठकर लोगों को समझाते क्यांे नहीं?’’
‘‘यह काम हमारा नहीं है। हम तो यहां बैठकर भगवद् भक्ति करते हैं।’’
‘पर इसके लिए आपको कोई दूसरी जगह न मिली?’
बाबाजी बोले, ‘‘हम कहीं भी बैठंे, हमारे लिए सब जगह समान है। लोग तो भेंड़ांे के झुंड की तरह हैं। बड़े लोग जिस रास्ते ले जाते हैं, उसी रास्ते वे चलते हैं। हम साधुआंे को इससे क्या मतलब?’’
मैंने संवाद आगे नहीं बढ़ाया। हम मन्दिर में पहुंचे। सामने लहू की नदी बह रही थी। दर्शनांे के लिए खड़े रहने की मेरी इच्छा न रही। मैं बहुत अकुलाया, बेचैन हुआ। वह दृश्य मैं अब तक भूल नहीं सका हूं। उसी दिन मुझे एक बंगाली सभा का निमंत्रण मिला था। वहां मैंने एक सज्जन से इस क्रूर पूजा की चर्चा की। उन्होंने कहा, ‘‘हमारा खयाल यह है कि वहां जो नगाड़े वगैरह बजते हैं, उनके कोलाहल में बकरों को चाहे जैसे भी मारो उन्हें कोई पीड़ा नहीं होती।’’
‘उनका यह विचार मेरे गले न उतरा। मैंने उन सज्जन से कहा कि यदि बकरांे को जबान होती तो वे दूसरी ही बात कहते। मैंने अनुभव किया कि यह क्रूर रिवाज बंद होना चाहिए। बुद्धदेव वाली कथा मुझे याद आयी पर मैंने देखा कि यह काम मेरी शक्ति से बाहर है। उस समय मेरे जो विचार थे, वे आज भी हैं। मेरे ख्याल से बकरों के जीवन का मूल्य मनुष्य के जीवन से कम नहीं है। मनुष्य देह को निबाहने के लिए मैं बकरे की देह लेने को तैयार न होऊंगा। मैं यह मानता हूं कि जो जीव जितना अधिक अपंग है, उतना ही उसे मनुष्य की क्रूरता से बचने के लिए मनुष्य का आश्रय पाने का अधिक अधिकार है, पर वैसी योग्यता के अभाव में मनुष्य आश्रय देने में असमर्थ है। बकरांे को इस पापपूर्ण होम से बचाने के लिए जितनी आत्मशुद्धि और जितना त्याग मुझमें है, उससे कहीं अधिक की मुझे आवश्यकता है। जान पड़ता है कि अभी तो उस शुद्धि और त्याग का रटन करते हुए ही मुझे मरना होगा। मैं यह प्रार्थना निरन्तर करता रहता हूं कि ऐसा कोई तेजस्वी पुरुष और ऐसी कोई तेजस्विनी सती उत्पन्न हो, जो इस महापातक में से मनुष्य को बचाए, निर्दोष प्राणियों की रक्षा करे और मन्दिर को शुद्ध करे। ज्ञानी, बुद्धिशाली, त्यागवृत्तिवाला और भावना-प्रधान बंगाल यह सब कैसे सहन करता है?
Rashtravadi Vyaktitva - Mahatma Gandhi - Book of Dr (Miss) Sharad Singh

तीसरा महीना 
‘कालीमाता के निमित्त से होनेवाला विकराल यज्ञ देखकर बंगाली जीवन को जानने की मेरी इच्छा बढ़ गयी। ब्रह्मसमाज के बारे में तो मैं काफी पढ़-सुन चुका था। मैं प्रतापचन्द्र मजूमदार का जीवनवृतान्त थोड़ा जानता था। उनके व्याख्यान मैं सुनने गया था। उनका लिखा केशवचन्द्र सेन का जीवनवृत्तान्त मैंने प्राप्त किया और उसे अत्यन्त रसपूर्वक पढ़ गया। मैंने साधारण ब्रह्मसमाज और आदि ब्रह्मसमाज का भेद जाना। पंडित विश्वनाथ शास्त्री के दर्शन किए। महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के दर्शनों के लिए मैं प्रो. काथवटे के साथ गया पर वे उन दिनों किसी से मिलते न थे, इससे उनके दर्शन न हो सके। उनके यहां ब्रह्मसमाज का उत्सव था। उसमें सम्मिलित होने का निमंत्रण पाकर हम लोग वहां गए थे और वहां उच्च कोटि का बंगाली संगीत सुन पाए थे। तभी से बंगाली संगीत के प्रति मेरा अनुराग बढ़ गया।
‘ब्रह्मसमाज का यथासम्भव निरीक्षण करने के बाद यह तो हो ही कैसे सकता था कि मैं स्वामी विवेकानन्द के दर्शन न करूं? मैं अत्यन्त उत्साह के साथ बेलूर मठ तक लगभग पैदल पहुंचा। मुझे इस समय ठीक से याद नहीं है कि मैं पूरा चला था या आधा। मठ का एकान्त स्थान मुझे अच्छा लगा था। यह समाचार सुनकर मैं निराश हुआ कि स्वामीजी बीमार हैं, उनसे मिला नहीं जा सकता और वे अपने कलकत्तेवाले घर में हैं। मैंने भगिनी निवेदिता के निवास स्थान का पता लगाया। चैरंगी के एक महल मैं उनके दर्शन किए। उनकी तड़क-भड़क से मैं चकरा गया। बातचीत में भी हमारा मेल नहीं बैठा।
गोखले से इसकी चर्चा की। उन्होंने कहा, ‘‘वह बड़ी तेज महिला हैं। अतएव उससे तुम्हारा मेल न बैठा, इसे मैं समझ सकता हूं।’’
फिर एक बार उनसे मेरी भेंट पेस्तन जी के घर हुई थी। वे पेस्तन जी की वृद्धा माता को उपदेश दे रही थी, इतने में मैं उनके घर जा पहुंचा था। अतएव मैंने उनके बीच दुभाषिए का काम किया था। हमारे बीच मेल न बैठते हुए भी इतना तो मैं देख सकता था कि हिन्दू धर्म के प्रति भगिनी का प्रेम छलका पड़ता था। उनकी पुस्तकों का परिचय मैंने बाद में किया।
मैंने दिन के दो भाग कर दिए थे। एक भाग में दक्षिण अफ्रीका के काम के सिलेसिले मैं कलकत्ते में रहनेवाले नेताआंे से मिलने में बिताता था, और दूसरा भाग कलकत्ते की धार्मिक संस्थाओं और दूसरी सार्वजनिक संस्थाओं को देखने में बिताता था।
एक दिन बोअर-युद्ध में हिन्दुस्तानी शुश्रूषा-दल में जो काम किया था, उस पर डाॅ. मलिक के सभापतित्व में मैंने भाषण किया। ‘इंग्लिशमैन’ के साथ मेरी पहचान इस समय भी बहुत सहायक सिद्ध हुई। मि. सांडर्स उन दिनों बीमार थे पर उनकी मदद तो सन् 1896 में जितनी मिली थी, उतनी ही इस समय भी मिली। यह भाषण गोखले को पसन्द आया था और जब डाॅ. राय ने मेरे भाषण की प्रशंसा की तो वे बहुत खुश हुए थे।
यूं, गोखले की छाया में रहने से बंगाल में मेरा काम बहुत सरल हो गया था। बंगाल के अग्रगण्य कुटुम्बांे की जानकारी मुझे सहज ही मिल गयी और बंगाल के साथ मेरा निकट सम्बन्ध जुड़ गया। इस चिरस्मरणीय महीने के बहुत से संस्मरण मुझे छोड़ देने पड़ेंगे। उस महीने में मैं ब्रह्मदेश का भी एक चक्कर लगा आया था। मैंने स्वर्ण-पैगोडा के दर्शन किए। मंदिर में असंख्य छोटी-छोटी मोमबत्तियां जल रही थीं। वे मुझे अच्छी नहीं लगी। मन्दिर के गर्भगृह में चूहों को दौड़ते देखकर मुझे स्वामी दयानन्द के अनुभव का स्मरण हो आया। ब्रह्मदेश की महिलाआंे की स्वतंत्रता, उनका उत्साह और वहां के पुरुषों की सुस्ती देखकर मैंने महिलाओं के लिए अनुराग और पुरुषांे के लिए दुःख अनुभव किया। उसी समय मैंने यह भी अनुभव किया कि जिस तरह बम्बई हिन्दुस्तान नहीं हैं, उसी तरह रंगून ब्रह्मदेश नहीं है और जिस प्रकार हम हिन्दुस्तान में अंग्रेज व्यापारियों के कमीशन एजेंट या दलाल बने हुए हैं, उसी प्रकार ब्रह्मदेश में हमने अंग्रेजांे के साथ मिलकर ब्रह्मदेशवासियांे को कमीशन एजेंट बनाया है।
‘ब्रह्मदेश से लौटने के बाद मैंने गोखले से विदा ली। उनका वियोग मुझे अखरा पर बंगाल अथवा सच कहा जाए तो कलकत्ते का मेरा काम पूरा हो चुका था।
‘‘मैंने सोचा था कि धन्धे में लगने से पहले हिन्दुस्तान की एक छोटी-सी यात्रा रेलगाड़ी के तीसरे दर्जे में करूंगा और तीसरे दर्जें में यात्रियों का परिचय प्राप्त करके उनका कष्ट जान लूंगा। मैंने गोखले के सामने अपना यह विचार रखा। उन्होंने पहले तो उसे हँसकर उड़ा दिया पर जब मैंने इस यात्र के विषय मैं अपनी आशाओं का वर्णन किया, तो उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक मेरी योजना को स्वीकृति दे दी। मुझे पहले तो काशी जाना था और वहां पहुंचकर विदुषी ऐनी बेसेंट के दर्शन करने थे। वे उस समय बीमार थीं।’’
कलकत्ता में गोपाल कृष्ण गोखले के साथ कुछ दिन व्यतीत करना  गांधी जी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण रहा। सन् 1912 में गांधी जी के आमंत्रण पर गोखले स्वयं दक्षिण अफ्रीका गए और वहां जारी रंगभेद का विरोध किया। गांधी जी ने गोखले को हमेशा अपना ‘राजनीतिक गुरु’ माना। 
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(डाॅ. शरद सिंह)
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Mahatma Gandhi with Gopal Krishna Gokhale in a Group Photo

एक पुनर्पाठ आलेख कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘समय सरगम’ का ... संवेदनाओं का आकलन वाया ‘समय सरगम’ - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

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Dr (Miss) Sharad Singh
एक पुनर्पाठ आलेख कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘समय सरगम’ का ...


संवेदनाओं का आकलन वाया ‘समय सरगम’ 

         - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
                                           

समय यदि संगीत है तो आयु उसका आरोह और अवरोह है। जन्म से ले कर चरम युवा काल तक आरोह और फिर प्रौढ़ावस्था के लघु ठहराव के बाद अवरोह का स्वर फूटने लगता है। समय और आयु किसी की के लिए ठहरती नहीं है। समय का राग अपने अनेक स्वरों के साथ ध्वनित होता रहता हैै और आशाओं, अभिलाषाओं, आकांक्षाओं की स्वरलिपि आयु अनुरूप राग छेड़ती रहती है। तार सप्तक के बाद मंद सप्तक पर लौटना अनुभवों से भरे जीवन का गुरुतम स्वरूप होता है जिसे आरोही स्वर अवरोह का थका हुआ स्वर मान लेते हैं और अपनी स्फूर्ति पर इठलाते हुए मंद-सप्तक स्वरों को बोझ समझने लगते हैं। यही समय और आयु का सत्य है और मानव के सामाजिक जीवन का भी। 
‘समय सरगम’ कृष्णा सोबती का एक अनूठा उपन्यास है। यह समय की गति को उसकी नब्ज़ और सामाजिक दुरावस्थाओं के साथ जांचता है। 18 फरवरी, 1925, पंजाब के शहर गुजरात में (अब पाकिस्तान में) जन्मीं कृष्णा सोबती पचास के दशक में ही लेखन से जुड़ गई थीं। उनकी पहली कहानी ‘लामा’ 1950 में प्रकाशित हुई। इसके बाद की प्रमुख कृतियां हैं- ‘डार से बिछुड़ी’, ‘ज़िन्ंदगीनामा’, ‘ए लड़की’,  ‘मित्रो मरजानी’,  ‘हम हशमत’,  ‘दिलो-दानिश’ और ‘समय सरगम’। सन् 2000 में प्रकाशित उपन्यास ‘समय सरगम’ को के.के. बिरला फाउंडेशन ने वर्ष 2007 के व्यास सम्मान प्रदान किया।
Samay Sargam - Krishna Sobati
      ‘समय सरगम’ को पढ़ते हुए सहसा पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का संस्मरणात्मक निबंध ‘वृद्धावस्था’ याद आता है जिसमें उन्होंने लिखा है -‘‘काल की बड़ी क्षिप्र गति है। वह इतनी शीघ्रता से चला जाता है कि सहसा उस पर हमारी दृष्टि नहीं जाती। हम लोग मोहावस्था में पड़े ही रहते हैं और एक-एक पल, एक-एक दिन और एक-एक वर्ष कर काल हमारे जीवन को एक अवस्था से दूसरी अवस्था में चुपचाप ले जाता है। जब कभी किसी एक विशेष घटना से हमें अपनी यथार्थ अवस्था का ज्ञान होता है तब हम अपने में विलक्षण परिवर्तन देखकर विस्मित हो जाते हैं। उस समय हमें चिंता होती है कि अब वृद्धावस्था आ गई है, अब हमें अपने जीवन का हिसाब पूरा कर देना चाहिए। दर्पण में प्रतिदिन ही हम अपना मुख देखते हैं, पर अवस्था का प्रभाव इतने अज्ञात रूप से होता है कि हम अपने मुख पर कोई परिवर्तन नहीं देख पाते। कान के पास बालों को सफेद देखकर राजा दशरथ को एक दिन सहसा ज्ञात हुआ कि अब उनकी वृद्धावस्था आ गई। उस दिन निर्मला से परिचित होने पर मुझे भी सहसा ज्ञात हुआ कि मैं अब वृद्ध हो गया हूं।’’ 
अवस्था चाहे कोई भी हो प्रायः किसी अन्य व्यक्ति के बोध कराने पर अनुभव होती है, वृ़़द्धावस्था तो विशेषरूप से। बच्चे आयु में कितने भी बड़े हो जाएं किन्तु माता-पिता की दृष्टि में बच्चे ही रहते हैं। पचास वर्षीय संतान को भी चोट लगती है तो मां को ठीक उतनी ही पीड़ा होती है जितनी कि उसे शैशवावस्था में चोट लगने पर पीड़ा होती थी। इसके विपरीत मां की गोद में छिप कर सारे संसार के भय, निराशा और क्रोध से मुक्ति पा लेने वाली संतान जब आत्मनिर्भर हो जाती है तब उसे अपनी वही मां अनापेक्षित लगने लगती है। वह अपनी अशक्त हो चली मां को वह संरक्षण, वह सहारा, वह स्नेह देने को तैयार नहीं होता है जो उसने अपनी मंा से पाया था।
Krishna Sobati
      वृद्धावस्था का अहसास उस पल पहली बार होता है जब अपनी ही संतान द्वारा अवहेलना का शिकार होना पड़ता है वहीं वृद्धावस्था समाज द्वारा ‘बेचारी’ अवस्था के रूप में देखे जाने के कारण भी व्यक्ति को तोड़ने लगती है। ‘समय सरगम’ में दो प्रमुख पात्र हैं- आरण्या और ईशान। दोनों वृद्धावस्था में पहुंच चुके हैं। वह अवस्था जिसे ‘सीनियर सिटिजन’ के सम्बोधन से खोखला सम्मान तो दे दिया जाता है किन्तु सत्यता इससे परे कटु से कटुतर होती है। ईशान बाल-बच्चेदार व्यक्ति हैं किन्तु उनके बेटे उन्हें अपने साथ नहीं रखते हैं। ईशान अकेले रहते हैं और इस बात की प्रतीक्षा रहती है उन्हें कि उन्हीं पोती अपनी छोटी-छोटी ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए उन्हें फोन करेगी और बुलाएगी। यह अल्प सुख ईशान के भीतर जीवित रहने की जिजिविषा बनाए रखता है। यह सच है कि आरण्या के साथ ने उनके जीवन में उत्साह का संचार किया। वहीं आरण्या एकाकी महिला है। जीवन जीने की दिशा में ईशान से कहीं अधिक स्फूत्र्त। वह लेखिका है। शायद इसी लिए उसका एकाकीपन उसे नैराश्य से बचाए रखता है। दोनों व्यक्ति दिल्ली महानगर में रहते हैं। दोनों दिल्ली विकास प्राधिकरण के आभारी हैं जिसने ऐसे पार्क बना रखे हैं जहां जवान, बूढ़े हर कोई घूम सकता है, हल्के-फुल्के व्यायाम करते हुए परस्पर एक दूसरे से परिचित हो सकता है। वृद्धों के लिए ऐसी जगह सबसे आरामदेह है। ‘‘बूढ़ों सयानों की टोली हर शाम इस छोटे से बगीचे में पहले टहलती है, फिर बतियाती है। डी.डी.ए. की बदौलत। नागरिक कृतज्ञ हैं इस छुटके से बगीचे में बिछी हरियाली घास के लिए। फूलों की क्यारियों और लतरों के लिए। न होता ये सुहाना टुकड़ा तो देखती रहती यह अंाखें सीमेंट के अपार्टमेंट जंगल को।’’ (पृ.89) 
 खुली हवा में सांस लेते हुए अपने हमउम्रों के दुख-सुख को बंाटने का एक अलग ही आनन्द है। लेकिन पार्क से लौटते ही वही एकाकीपन। इस एकाकीपन के पास कृष्णा सोबती कैसे पहुंची? कैसे उन्हें उस पीड़ा का अहसास हुआ कि अकेले वृद्ध किस तरह खुशियों के एक-एक कतरे के लिए तरसते हैं? इस तारतम्य में उनका स्वयं का कथन बहुत अर्थ रखता है-‘‘मैं उस सदी की पैदावार हूं जिसने बहुत कुछ दिया और बहुत कुछ छीन लिया। यानी एक थी आजादी और एक था विभाजन। मेरा मानना है कि लेखक सिर्फ़ अपनी लड़ाई नहीं लड़ता और न ही सिर्फ़ अपने दुख-दर्द और खुशी का लेखा-जोखा पेश करता है। लेखक को उठना होता है, भिड़ना होता है। हर मौसम और हर दौर से नज़दीक और दूर होते रिश्तों के साथ, रिश्तों के गुणा और भाग के साथ, इतिहास के फैसलों और फ़ासलों के साथ। मेरे आसपास की आबोहवा ने मेरे रचना संसार और उसकी भाषा को तय किया। जो मैंने देखा, जो मैंने जिया वही मैंने लिखा ‘ज़िन्दगीनामा’, ‘दिलोदानिश’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘समय सरगम’, ‘यारों का यार’ में।’’ (बीबीसी हिन्दी डाॅट काॅम, 18 अगस्त 2004)  
कथानक भले ही एकाकी वृद्धों के जीवन पर केन्द्रित हो किन्तु देश के बंटवारे का दर्द ‘समय सरगम’ में भी अपनी सम्पूर्णता के साथ दिखाई पड़ता है। ‘‘नई पुरानी दिल्ली अपनी घनी सजीली छब में हर हाल में अपनी सूरत और सीरत सम्हाले रहती। आज़ादी के साथ ही राजधानी में बाढ़ की तरह रेला उठ आया। आक्रामक विस्थापितों के ठट्ठ के ठट्ठ। यहां-वहां सब जगह। शहर के हर इलाके में। दिल्ली निवासी शरणार्थियों की भीड़ से परेशान और गंाव-कस्बों और शहरों से उखड़े हुए आक्रामक शरणार्थी-दिल्ली के सुसंस्कृत मिज़ाज में घूल भरी आंधियां चलने लगीं।’’ (पृ.43)
शरणार्थी अपने और अपनों के जीवन के लिए आक्रामक मुद्रा में भले ही थे किन्तु अधिकांश ऐसे थे जो अकेले रह गए थे। अतः अकेलेपन की चर्चा के समय देश के बंटवारे के दौरान उपजा अकेलापन भी विषयानुकूल है। पहले भरपूरा परिवार पारम्परिक और संस्कृति से ओतप्रोत फिर एक लम्बा अकेला जीवन। यह बंटवारे के समय परिस्थिति का परिणाम रहा किन्तु वर्तमान में यह प्रारब्ध बन गया है। दिल्ली जैसे महानगरों की गंगनचुम्बी इमारतों के छोटे-छोटे फ्लैट्स में एकल परिवार और अकेले बूढ़ों की वो दुनिया बस गई है जिनके बीच स्नेह की बेल सूख चुकी है। आरण्या और ईशान संयुक्त परिवार की अवधारणा के समाप्त होने पर चर्चा करते हैं तो आरण्या बोल उठती है-‘‘ईशान, मुझे संयुक्त परिवार का अनुभव नहीं। दूर-पास से जो इसकी आवाज़ें सुनीं वह सुखकर नहीं थीं। इतना जानती हूं कि परिवार की सुव्यवस्थित अस्मिता ओर गरिमा का मूल्य भी उनहें ही चुकाना होता है जिनका खाता दुबला हो। परिवार की सांझी श्री पैसे के व्यापारिक प्रबंधन में निहित है। उसकी आंतरिक शक्ति क्षीण हो चुकी है। घनी छांह की जगह घिसी हुई पुरानी चिन्दियां फरफरा रही हैं। जानती हूं ईशान, आपको यह बात ठीक नहीं लग रही, पर मैं अपनी कीमत पर इसकी पड़ताल कर रही हूं और ‘सत्य’ के नाू-रूप में संचारित छोटे-बड़े झूठ और झूठों से बनाए गए स्वर्णिम सत्यों की ठोंक-पीट ही इस सात्विक संसार की प्रेरणा है।’’ (पृ.64) 
यदि वृद्धावस्था आ गई है तो क्या चैबीस घंटे ईश्वर की स्तुति एवं धर्म-दर्शन में व्यतीत करना चाहिए? ईशान आरण्या का परिचय दमयंती से कराता है। वह भी उनकी हमउम्र है। किन्तु वह इन दोनों की भांति एकाकी नहीं है वरन् अपने बेटों-बहुओं के साथ रह रही है। उसने समाज एवं परिवार की प्रचलित मान्यताओं के अनुरूप स्वयं को एक गुरु की शिष्या बना कर सत्संग के हवाले कर दिया है। ऊपर से देखने से यही लगता है कि वह अपनी इस स्थिति से प्रसन्न एवं संतुष्ट है। वास्तविकता इससे परे है। दमयंती का खान-पान गुरू के निर्देशानुसार बदल चुका है। पहनावा भी उन्हीं के अनुसार अपना लिया है। लेकिन बेटे, बहू फिर भी संतुष्ट नहीं हैं। दमयंती मानो किसी भुलावे में जी रही है। वह कहती है-‘‘आरण्या, मैं सूती कपड़ा तन को छुआती न थी। एक दिन सत्संग के बाद मेरी गुरूजी ने टोक दिया। अब सूफियाने-से सूती जोड़े बनवाए हैं। मेरे बेटों और बहुओं की सुनो। रेशम पहनो तो कहते हैं, इस उम्र में ये मचक-दमक अच्छी नहीं लगती। सूती पहनूं तो वह भी पसंद नहीं। कहते हैं कि इनमें आप हमारी मां नहीं लगतीं। तुम्हीं बताओ क्या करूं?’’ (पृ.72) लेखन और समाजहित के कार्यों के संबंध में यही दमयंती आगे कहती है-‘‘बहन, यह काम तो यहीं धरे रह जाएंगे ओर कभी पूरे न होंगे। हमें आगे का भी सोचना है।’’ कितनी दिग्भ्रमित है दमयंती। जिसने अपने बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा किया। उन्हें सही और गलत का अर्थ समझाया। सही रास्ता दिखाया। जीवन का अर्थ समझाया। वहीं दमयंती वृद्धावस्था में आते ही अपने बच्चों के व्यवहार से इतनी भयाक्रांत हो गई कि उसने सही और गलत में भेद करना ही भुला दिया। परलोक के अस्तित्व के विचारों ने उसे इहलोक के उन दायित्वों से विमुख कर दिया जो अभी वह भली-भांति निभा सकती थी। अपितु ये कहा जाए कि यही वृद्धावस्था की दायित्वमुक्त आयु स्वयं को जीने की आयु होती है जिसे दमयंती जैसे व्यक्ति जीने का न तो साहस कर पाते हैं और न दसके बारे में सोच पाते हैं। परलोक के अस्तित्व की एक भेड़चाल या फिर वृद्धों को भयभीत कर रखने की वह चाल जिसमें उलझ कर वे युवाओं के जीवन में हस्तक्षेप न कर सकें। 
आरण्या परलोक-भय की भेड़चाल से परे अपने रास्ते पर चल रही है। वह अपने तयशुदा दायित्वों के प्रति न केवल सजग है अपितु उन्हें निष्ठापूर्वक पूरे भी करना चाहती है। आयु को ले कर ईशान के ऊहापोह के उत्तर में आरण्या कहती है-‘‘मैं अपने को उम्र में इतना बड़ा महसूस नहीं करती जितना आप मान रहे हैं। मेरे आसपास मेरा परिवार नहीं फैला हुआ कि मैं अपने में मंा, नानी, दादी की बूढ़ी छवि ही देखने लगूं। ईशान, मुझे मेरा अपनापन निरंतरता का अहसास देता है।’’ (पृ.80) यही तो वह तथ्य है कि आयु को अनुभव करना ही आयु को से समझौता कर लेना है। आरण्या को यह समझौता स्वीकार नहीं है। वह बड़ी-बूढ़ी छवियों में उलझ कर स्वयं को बूढ़ी मान कर थकाना नहीं चाहती है। क्योंकि वह जानती है कि एकाकीपन उन रिश्तों की बूढ़ी छवियों के बीच और अधिक गहरा जाता है। 
रिश्तों के एकाकीपन के तारतम्य में उषा प्रियंवदा की कहानी ‘वापसी’ सहसा स्मरण हो आती है। एक व्यक्ति जब रिटायर हो कर घर लौटता है तो घर में खलबली मच जाती है। उसे सदा के लिए कोई अपने बीच नहीं पाना चाहता है। घर का प्रत्येक सदस्य, यहां तक कि उसकी पत्नी भी चाहती है कि वह उसकी तरह समझौतावादी बन कर रहे अथवा फिर कहीं चला जाए। उसकी घर वापसी उसके घरवालों के लिए ही खटकने वाली हो जाती है। यही है अपनों के बीच का परायापन जो सेवानिवृत्त व्यक्ति को अकेला कर देता है। ईशान इसी अकेलेपन को जी रहा है। किन्तु आरण्या नहीं। आरण्या मंा, नानी, दादी नहीं बल्कि एक स्वावलम्बी स्त्री के रूप में जीवन जी रही है, वृद्धावस्था के फेंटे में आने के बावजूद भी। वह उन लोगों जैसी समझौतावादी नहीं है जो स्वयं को अशक्त मान लेते हैं और बहू-बेटों के तिरस्कार में भी अपने सुखों की तलाश करते शेष जीवन बिता देते हैं। बहुमंजिला इमारत में अपने फ्लैट (जो उनका अपना नहीं रहा, बहुओं-बेटों का हो चुका ) के ठीक बाहर सड़क के उस पार बने नन्हें से पार्क में उनकी दुनिया सिमट कर रह जाती है। वे यही सोच कर स्वयं को ढाढस बंधाते हैं कि ‘‘कामकाज से छुट्टी पा इसे भोगना भी सुख है जीने का। बहू-बेटों की नज़रों में रुखाई, अवज्ञा, उदासीनता कुछ भी दीखती रहे-परिवार के साथ हाने का सुख है गहरा। रहती है आत्मा शांत कि सभी कोई पास हैं। अपने साथ हैं।.....यह बात अलग है कि परिवारों में बड़े-बूढ़ों के अधिकार कमतर और ‘हां’ ‘न’ का संकोच ज्यादा है। पीढ़ी सरक जाए तो अख्तियार खुद ही आधे-पौने हो जाते हैं। बहू -बेटों की मरजी मुताबिक चलना। वे जैसा चाहें रहते रहें। हम क्यों तानाशाह बने हुक्म चलाते रहें।’’ (पृ.89-90) अपनी स्थिति को नियति मान लेना और अपने बहू-बेटों के अनुरूप स्वयं को ढाल लेना इतना भी बुरा नहीं है जितना कि रिश्तेदारों के होते हुए भी अकेले पड़ जाना। ईशान की परिचित कामिनी इसी विडम्बना को जी रही है। कामिनी का भाई अपने परिवार के साथ अलग रहता है। कामिनी की सेवा-टहल के लिए ‘खूकू’ नाम की नौकरानी है। नौकरानी भी ऐसी जो कामिनी की अवस्था से तादात्म्य नहीं बिठा सकी है। वह आलमारी की चाबी के बारे में पूछने पर ईशान से कहती है-‘‘कभी मेम साहिब के पास होती है, कभी मेरे पास। उन्हें कुछ याद नहीं रहता। कहीं रख देती हैं और मुझ पर बरसने लगती हैं। क्या करूं साहिब, मुझे ऐसी नौकरी छोड़ देनी चाहिए पर इनकी हालत पर तरस आता है।’’ (पृ.99) ईशान और आरण्या दोनों समझ जाते हैं कि यह ‘तरस’ वास्तविक ‘तरस’ नहीं है। इसके पीछे निहित स्वार्थ की गंध उन्होंने स्पष्ट महसूस की। किन्तु वे उस लाचार वृद्धा के रिश्तेदार नहीं हैं जो कोई ठोस कानूनी क़दम उठा सकें। जो रिश्तेदार है अर्थात् कामिनी का भाई उसे अपनी बहन से अधिक अपनी बहन के घर से प्यार है। कामिनी ईशान और आरण्या को बताती है कि ‘‘मुझे दलाल बता गया है कि भाई ने मेरे घर का सौदा कर लिया है। बयाना ले चुका है। खूकू ने मुझे नहीं बताया पर बिल्डर घर को दो बार आगे-पीछे और अंदर से देख गया है। मैं तब सोई पड़ी थी।’’ कामिनी आगे बताती है कि ‘‘एक रात देखा तो मेरी डाक्यूमेंट फाईल में घर के पेपर नहीं थे। अगली रात यह (खूकू) बाहर ताला डाल कर चली गई तो फिर आलमारी खोली। सब खाने छान मारे फाईल खोली तो असली की जगह फोटोस्टेट काॅपी रखी थी।....असली अब मेरे पास नहीं है।’’ (पृ. 98) यह छल, वह भी अपने सगे भाई और अपनी नौकरानी के हाथों। कामिनी को यह सब सहन करना पड़ रहा था। क्यश एक वृद्धा के लिए जिसने अपना जीवन शान से सिर उठा कर, निद्र्वन्द्व हो कर जिया हो, आसान हो सकता था? कामिनी के लिए कुछ भी आसान नहीं था। 

आरण्या के अपने अनुभव भी कम कटु नहीं थे। यदि वृद्ध व्यक्ति अकेला हो तो क्या उसे सुगमता से किराए का घर मिल सकता है? वह न तो युवाओं जैसी पार्टियां करेगा, न तो लड़कियों अथवा लड़कों को अपने घर लाएगा, युवाओं में प्रचलित कोई भी असमाजिक हरकत नहीं करेगा चाहे वह वृद्ध हो या वृद्धा। फिर तो मकान मालिक को ऐसे वृद्धों को किराए से मकान देने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। आर्थिक स्थिति से सुरक्षित वृद्ध का तो और पहले स्वागत किया जाना चाहिए। किन्तु इस सिक्के का दूसरा पहलू अत्यंत भयावह है। आरण्या को मकान बदलने की नौबत आती हैं वह एक अदद किराए का मकान ढूंढने निकल पड़ती है। 

‘‘एक अच्छे खासे घर को दो-तीन बार देख कर उसका एडवांस देना चाहा तो ऐजेंट के साथ खड़े बुजुर्ग ने पूछा-यह बताएं कि आपकी जिम्मेदारी कौन लेगा?
जिम्मेदारी? क्या मतलग?
आप अकेली रहेंगी कि कोई और भी साथ में होगा? 
मैं रहूंगी और मैं ही अपने लिए जिम्मेदार हूं।
आपकी जन्म तारीख किस सन् की है?
यह क्यों पूछ रहे हैं आप? इसलिए कि हमें पूछना चाहिए। कल को चली-चलाई को कुछ चक्कर हो तो हम झमेले में क्यों पड़ें।’’ (पृ. 122)
यानी मृत्यु का आकलन करके मकान किराए पर देना तय करना। एकदम अमानवीय विचार। एकदम अमानवीय कृत्य। किन्तु यही सामाजिक सत्य है, घिनौना, स्वाभाविक सोच से परे। मृत्यु वृद्धावस्था की सगी-संगिनी हो, यह आवश्यक नहीं है। यह आयु का उतार चढ़ाव नहीं देखती है। बस, अपने मतलब की संासें गिनती है और आ धमकती है। शिशु भी युवा भी, वृद्ध भी सभी इसी की छांह में सांसे लेते हैं। यदि पल भर को मान लिया जाए कि मृत्यु और वृद्धावस्था सगी बहनें हैं तो ऐसी दशा में तो वृद्ध को सहारा और सिर पर छत मिलनी ही चाहिए। किन्तु स्वार्थ और आर्थिक लोभ इंसान को पाषाणहृदय बना देता है। तभी तो जब एक अन्य फ्लैट को तय करने के लिए आरण्या एजेंट से बातचीत करती है।
‘‘एजेंट ने कंपनी लीज़ की मांग की।
कुछ देर सोचती रही फिर हामी भरी। हां, दे सकूंगी।
नाम बताइए कंपनी का। कौन है?
मेरे प्रकाशक हैं। 
क्या आप लेखक हैं! किताबें लिखती हैं? ऐसा है तो कहां से ला कर देंगी किराया?
आरण्या बिना जबाव दिए नीचे उतर गई।’’ (पृ. 122) 
Dr (Miss) Sharad Singh

कृष्णा सोबती यहां एक साथ दो बिन्दुओं पर प्रहार करती हैं। एक तो वृद्धों के प्रति मकानमालिक और ऐजेंट के मानवतारहित व्यवहार पर और दूसरा भारत में लेखकों की आर्थिक एवं सामाजिक दशा पर। भारत में आदिकाल से लेखन को चैंसठ कलाओं में से एक कला माना जाता रहा है। किन्तु मान्यता और यथार्थ के बीच की गहरी खाई यहां हमेशा रही है। राजाओं के जमाने में राजाश्रय पा जाने वाले साहित्यकार अर्थ और समाज से प्रतिष्ठित रहते थे जबकि राजाश्रयविहीन साहित्यकार यदि पूछे भी जाते रहे हैं तो अपनी मृत्यु के सदियों बाद। आधुनिक युग में भी यही स्थिति है। पाश्चात्य जगत में ऐसा नहीं है। वहां साहित्यकार सिर्फ साहित्य सृजन कर के रायल्टी के दम पर अपनी रोजी-रोटी चला सकता है। किन्तु भारत में नहीं। यहां लेखक को बुद्धिजीवी की श्रेणी में भले ही गिना जाए परन्तु उसकी ‘लक्ष्मीप्रिया’ नहीं मानी जाती है। जो बुद्धि सीधे धनार्जन में लगे उसकी साख है, साहित्य में लगने वाली बुद्धि की नहीं। साहित्य का ‘मार्केट वेल्यू’ साहित्य व्यवसायी के लिए भले हो पर साहित्यकार के लिए नहीं होता है। अस्तु एक साहित्यकार की आर्थिक साख और उसके साहित्य के बल पर उसके जीवन की मूल्यवत्ता होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है।
आरण्या को अपनी सहेली के घर शरण लेनी पड़ती है। तब ईशान के मन में आता है कि क्यों न आरण्या उसके घर में आ कर रहे एक साथी की तरह। आरण्या कुछ हिचकते हुए प्रस्ताव स्वीकार कर लेती है। दो वृद्धजन परस्पर एक-दूसरे का सहारा बन कर जीने लगते हैं। विपरीत लिंगी होते हुए भी एक वासना रहित जीवन। विशुद्ध मैत्री पर आधारित साथ जिसमें एक-दूसरे का सुख-दुख, चिन्ता, आवश्यकताएं और पूरकता निहित है। ‘‘कितने बरस गुज़र गए। हम कहां से चले थे और कहां पहुंच गए। कहां मालूम था कि पतझर के इस मौसम में हम लोग मिल जाएंगे, पुराने परिचितों की तरह नहीं-नए मित्रों की तरह। लंबा अरसा हो गया है इस शहर में रहते। अपने-अपने खातों को देंखें तो कहां जान पाएंगे कि कितना खोया और कितना पाया। हां, आरण्या, तुम्हें जान लेने पर यह तो लगता है कि जीना बैंक का अकाउंट नंबर नहीं, जिसका कुल जोड़ कुछ आंकड़ों में हो। मैं अब किसी असमंजस में नहीं हूं। क्यों न अपने जाने को सहज-सरल कर लें। हम दोनों में से किसी को दिक्कत न होगी।’’ (पृ.147) 
जीवन से एक साझापन ही आयु के समय को आसान बना सकता है बशर्ते
यह साझापन विवशता का नहीं सहजता और उत्फुल्लता का हो। अन्यथा एकाकी वृद्धों के पास अपनी बचीखुची सांसें गिनते हुए दिन काटने के सिवा कोई चारा नहीं बचता है। एक ओर कामिनी, दमयंती जैसे वृद्ध हैं जो पारिवारिक दबाव के चलते आयु के हाथों की कठपुतली बन जाते हैं या फिर एक निःश्वास की भांति मंथर गति से घिसटते रहते हैं मृत्यु की ओर। ईशान जैसे वृद्ध व्यक्ति भी हैं जो परिस्थितियों को एक मध्यममार्गी की भांति स्वीकार करते हैं। वहीं आरण्या जैसे वृद्ध हैं जो बिना किसी को कष्ट पहुंचाए अपना जीवन अपने ढंग से जीने के लिए कृतसंकल्प रहते हैं। स्वावलंबी और स्वाभिमानी ढंग से। यद्यपि ऐसे मार्ग में अवरोध ही अवरोध हैं। एक तो स्त्री, वह भी अकेली और उस पर लेखिका। न कोई आर्थिक साख, न कोई सामाजिक सहारा। फिर भी अडिग रह कर जीवन के शेष दिनों को अपनी इच्छानुरुप ढालने का साहस। यही साहस उसे ईशान की निर्विकार मित्रता उपलब्ध कराता है। कृष्णा सोबती ‘समय सरगम’ में इसी सत्य को बखूबी सामने रखती हैं कि जीवन उतार-चढ़ावों से परिपूर्ण है। यदि तार-स्वर हैं तो मंद-स्वर भी हैं। फिर भी ये सभी एक रागों में निबंद्ध हैं। 
ःसमय सरगम’ की भाषा पाठक से सीधा संवाद करती है। अपनी भाषा के संदर्भ में एक साक्षात्कार में कृष्णा सोबती ने कहा था कि-‘‘ पात्र की सामाजिकता, उसका सांस्कृतिक पर्यावरण उसके कथ्य की भाषा को तय करते हैं। उसके व्यक्तित्व के निजत्व को, मानवीय अस्मिता को छूने और पहचानने के काम लेखक के जिम्मे हैं। भाषा वाहक है उस आंतरिक की जो अपनी रचनात्मक सीमाओं से ऊपर उठकर पात्रों के विचार स्रोत तक पहुंचता है। सच तो यह है कि किसी भी टेक्स्ट की लय को बांधने वाली विचार-अभिव्यक्ति को लेखक को सिर्फ जानना ही नहीं होता, गहरे तक उसकी पहचान भी करनी होती है। अपने से होकर दूसरे संवेदन को समझने और ग्रहण करने की समझ भी जुटानी होती है। एक भाषा वह होती है जो हमने मां-बोली की तरह परिवार से सीखी है- एक वह जो हमने लिखित ज्ञान से हासिल की है। और एक वह जो हमने अपने समय के घटित अनुभव से अर्जित की है। जिस लयात्मकता की बात आपने की, समय को सहेजती और उसे मौलिक स्वरूप देती वैचारिक अंतरंगता का मूल इसी से विस्तार पाता है।’’ उनकी भाषा की यही विशेषता कृष्णा जी के सृजन में आत्मीयता पैदा करती है। इससे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण है उनका कथानक जो ‘समय सरगम’ में ढल कर समाज में वृद्धों की दशा को खंगालता है, महसूस कराता है।
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(डाॅ. शरद सिंह)
सागर (मध्यप्रदेश) -470004    
मोबाः 9425192542
drsharadsingh@gmail.com



भारतीय कथा लेखन की आधुनिक प्रवृत्तियां और हिन्दी कथालेखन - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

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Dr (Miss) Sharad Singh, Author, Novelist and Social Activist

भारतीय कथा लेखन की आधुनिक प्रवृत्तियां और हिन्दी कथालेखन  - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
Bhartiya Katha Lekhan Ki Adhunik Pravrittiyan Aur Adhunik Katha Lekhan - Dr (Miss) Sharad Singh

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Bhartiya Katha Lekhan Ki Adhunik Pravrittiyan Aur Adhunik Katha Lekhan - Dr (Miss) Sharad Singh
डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह के चार उपन्यास - 
पिछले पन्ने की औरतें, पचकौड़ी, कस्बाई सिमोन, शिखण्डी ....
Pichhale Panne Ki Auraten पिछले पन्ने की औरतें - Novel of Dr (Miss) Sharad Singh
Pachakaudi पचकौड़ी - Novel of Dr (Miss) Sharad Singh
Kasbai Simon कस्बाई सिमोन - Novel of Dr (Miss) Sharad Singh
Shikhandi शिखण्डी - Novel of Dr (Miss) Sharad Singh
Dr (Miss) Sharad Singh st Madya Pradesh Sahitya Academy Alankaran Samaroh, Bhopal MP




रामकथा की वैश्विक मूल्यवत्ता - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

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 व्याख्यान-आलेख 

रामकथा की वैश्विक मूल्यवत्ता

 ।।

  डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह


( लेखिका की विभिन्न विषयों पर पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। लेखिका इतिहासविद्, साहित्यकार, स्तम्भकार, कार्यकारी संपादक, समाजसेवी हैं।)

।। 

    सागर, म.प्र.-470004

    मोबाईल: 7987723900

    drsharadsingh@gmail.com

                                                                                ।।





उपन्यास "शिखंडी : स्त्री देह से परे"की समीक्षा "दैनिक हिन्दुस्तान"में - डॉ शरद सिंह

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"दैनिक हिन्दुस्तान"में  मेरे उपन्यास "शिखंडी : स्त्री देह से परे"की समीक्षा प्रकाशित ।
सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित मेरा यह उपन्यास आप Online भी मंगा सकते हैं -
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सागर शहर में यह उपलब्ध है-

वैरायटी बुक्स, द्वारिकाजी कांपलेक्स, सिविल लाइंस पर।

#stayhome #StaySafe #readnovel
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बुंदेली व्यंग्य | लाईव ने भए तो कछु न भए | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित

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पत्रिका समाचारपत्र ने आज से एक नया कॉलम आरम्भ किया  है- #पत्रिका_व्यंग्य । इसकी शुरुआत मेरे #बुंदेली_व्यंग्य से की गई जिसके लिए मैं #पत्रिका की हृदय से आभारी हूं। तो ये है मेरा बुंदेली व्यंग्य...

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बुंदेली व्यंग्य
लाईव ने भए तो कछु न भए
     - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

        आज भुनसारे हमाए मोबाईल पे कक्का ने फोन करो। हमने देखो, जो का! कक्का तो वीडियो कॉलिंग कर रये। हमने ने उठाई। काए से के हम ऊ टेम पे पगलूं घांई दिखा रए हते। ने तो कंघी करी हती, ने कछु मेकअप-सेकअप करो रओ। अब भला पगलूं घाईं वीडियो पे तो आ न सकत ते। हमें फोन उठात ने देख उन्ने दस-बारा बार घंटी दे मारी। मनो मिस्डकॉल को रिकॉर्ड बना रये होएं। हमने जल्दी-फल्दी बाल ऊंछे। क्रीम-श्रीम लगाई। तनक अच्छी-सी सकल बना के हमने कक्का को कॉलबेक करो। बे तो मनो उधारई खाए बैठे हते। कहन लगे,‘‘इत्ती देर काए लगा दई बिन्ना? का कर रई हतीं?’’
‘‘कछु नई कक्का, चाय-शाय बना रई हती। हाथ भिड़ो हतो सो फोन ने उठा सकी।’’ हमने बहानो दओ।
‘‘खैर छोड़ो, तुम तो जा बताओ के तुम लाईव कबे हो रईं ?’’ कक्का ने पूछी।
‘‘का कै रये कक्का? हम कौन बढ़ा गए, जे लाईव तो हैं तुमाए आंगरे।’’ 
‘‘अरे, जे लाईव नई, हम तो सोसल मीडिया की बात कर रये। काए से के ई टेम पे तो हमाए लाने फुरसतई नईं मिल रई, लाईव कविताई करे से। आजई की ले लेओ अबई दस बजे से एक लाईव आए, फेर बारा बजे से दूसरो लाईव, तीसरो चार बजे से, चौथे रात आठ बजे और...’’
‘‘बस-बस कक्का, आप तो जे बताओ के आप अनलाईव कबे रहत हो?’’
‘‘बिन्ना, जोई तो कहात है आपदा में अवसर। तुम सोई अवसर को लाभ उठा लेओ। बो का कहात आए बहती गंगा में हाथ धो लेओ। काए से के ई टेम पे सोसल मीडिया पे जो लाईव ने भओ ऊकी ज़िन्दगी मनो झंड आए। तुमे सोई लाईव होने चइये। कहो तो आज दुपारी वारी गोष्ठी में तुमाओ नाम जुड़वा दओ जाये। तुमाई सोई तनक पूछ परख बढ़ जेहे। औ हओ, लाईव होने को प्रमाणपत्र सोई मिल जेहे। काए से के जा तो हमने तुमें पैलऊं बताई नई के लाईव होने को प्रमाणपत्र सोई मिलत है। हमें तो अब लों सैंकड़ा-खांड प्रमाणपत्र मिल गए हैं।’’ कक्का ने बताई।
‘‘सो, आपको ड्राईंगरूम तो प्रमाणपत्रन से भर गओ हुईए। दीवारन पे जांगा बची के नई?’’ 
‘‘अरे नईं! दीवारन पे जांगा काए ने बचहे, प्रमाणपत्र कोनऊ कगदा पे नईयां, बे तो ऑनलाईन आंए। हम उन्हें सोसल मीडिया पे भेजत रहत हैं। तुमे सोई मिलहें, तुम लाईव रओ करे।’’ कक्का ने समझाई।
‘‘हओ कक्का, भली कहीं! जिन्दा होबे को सैंकड़ा-खांड प्रमाणपत्र मिल जाएं, सो ऊमें का बुराई? बाकी, मनो एक लाईव सर्टीफिकेट के लाने तो लोगन खों सौ-सौ पापड़ बेलने पड़त हैं। दफ्तरन के चक्कर लगाबे पड़त हैं।’’ हमने हंस के कही।
‘‘तुम तो और! अरे, तुमसे तो कछु कहबो-सुनबो फिजूल आए।’’ कक्का ने फोन काट दओ और हमने लाईव होने को मौका गवां के मनो आपदा में अवसर गवां दओ। बस, हम तभई से मरे-डरे से फील कर रये हैं, मनो लाईव ने भए तो कछु न भए। 
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(पत्रिका में 04.09.2020 को प्रकाशित)
#DrSharadSingh #miss_sharad #डॉसुश्रीशरदसिंह #पत्रिका #बुंदेली #बुंदेलीव्यंग्य #व्यंग्यलेख #बुंदेलीसाहित्य #बुंदेलखंड #जयबुंदेलखंड #लेख #patrikaNewspaper #BundeliSatire #satire #BundeliLitrature #Bundelkhand #Dialect

लेखिका डाॅ (सुश्री) शरद सिंह से शोधार्थी सपना नेगी द्वारा लिया गया साक्षात्कार

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Dr (Miss) Sharad Singh, Author, Novelist and Social Activist 

प्रिय ब्लाॅग पाठको, आज मैं आपसे यहां अपना एक साक्षात्कार साझा कर रही हूं जिसे एक शोधार्थी द्वारा मुझसे लिया गया है। आशा है कि मेरे ब्लाॅग पाठक इस साक्षात्कार के माध्यम से मेरी सृजनयात्रा से परिचित हो सकेंगे। 


उपन्यासकारडाॅ (सुश्री) शरद सिंह से शोधार्थी सपना नेगी द्वारा लिया गया साक्षात्कार



1. आपने लिखना कब से प्रारंभ किया? क्या आप पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण लेखन की ओर प्रवृत्त हुई?


बचपन से ही लेखन कार्य कर रही हूं। मुझे लेखन की प्रेरणा मिली अपनी मां डॉ. विद्यावती ‘मालविका’ से, जो स्वयं सुविख्यात साहित्यकार रहीं हैं। मेरी दीदी डॉ. वर्षा सिंहजो गजल विधा की सुपरिचित हस्ताक्षर हैं। मैं बचपन में मां और दीदी दोनों की रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते देखती और सोचती कि किसी दिन मेरी रचनाएं भी कहीं प्रकाशित हों। इस संदर्भ में रोचक प्रसंग यह है कि उस समय मैं कक्षा आठ में पढ़ती थी। मैंने अपनी पहली रचना मां और दीदी को बिना बताए, उनसे छिपा कर वाराणसी से प्रकाशित होने वाले समाचारपत्र दैनिक ‘‘आज’’ में छपने के लिए भेज दी। कुछ दिन बाद जब वह रचना प्रकाशित हो गई और वह अंक मां ने देखा तो वे चकित रह गईं। यद्यपि उनसे कहीं अधिक मैं चकित रह गई थी। उस समय मुझे आशा नहीं थी कि मेरी पहली रचना बिना ‘सखेद वापसी’ के प्रकाशित हो जाएगी। आज इस प्रसंग के बारे में सोचती हूं तो लगता है कि उस समय जो भी साहित्य संपादक थे उनके हृदय में साहित्यिक-नवांकुरों को प्रोत्साहित करने की भावना अवश्य रही होगी। शेष प्रेरणा जीवन के अनुभवों से ही मिलती गई और आज भी मिलती रहती है जो विभिन्न कथानकों के रूप में मेरी कलम के माध्यम से सामने आती रहती है।

Dr Sharad Singh with her mother Dr Vidyawati Malavika

Dr Sharad Singh with her elder sister Dr Varsha Singh


24 जुलाई 1977 को मेरी पहली कहानी दैनिक जागरण के रीवा (म.प्र.) संस्करण में प्रकाशित हुई थी जिसका शीर्षक था ‘भिखारिन’। भाषा-शैली की दृष्टि से कच्ची सी कहानी। उस समय मेरी आयु 14 वर्ष थी। कविताएं, नवगीत, व्यंग्य, रिपोर्ताज, बहुत कुछ लिखती रही मैं अपनी लेखन यात्रा में। उम्र बढ़ने के साथ जीवन को देखने का मेरा दृष्टिकोण बदला, अपने छात्र जीवन में कुछ समय मैंने संवाददाता के रूप में पत्रकारिता भी की। उस दौरन में मुझे ग्रामीण जीवन को बहुत निकट से देखने का अवसर मिला। मैंने महसूस किया कि शहरों की अपेक्षा गांवों में स्त्रियों का जीवन बहुत कठिन है।

स्त्री विमर्श संबंधी मेरी पहली प्रकाशित कहानी - ‘काला चांद’ थी, जो जबलपुर (म.प्र.) से प्रकाशित होने वाले समाचारपत्र दैनिक नवीन दुनिया, के ‘नारीनिकुंज’ परिशिष्ट में 28 अप्रैल 1983 को प्रकाशित हुई थी। इस परिशिष्ट का संपादन वरिष्ठ साहित्यकार राजकुमार ‘सुमित्र’ किया करते थे। राष्ट्रीय स्तर पर मेरी प्रथम चर्चित कहानी ‘गीला अंधेरा’ थी। जो मई 1996 में भारतीय भाषा परिषद् कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘‘वागर्थ’’ में प्रकाशित हुई थी। उस समय ‘वागर्थ’ के संपादक प्रभाकर श्रोत्रिय थे।

सच्चे अर्थों में मैं अपनी पहली कहानी ‘गीला अंधेरा’ को मानती हूं। यह कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘वागर्थ’ के मई 1996 अंक में प्रकाशित हुई थी। ‘गीला अंधेरा’ को मैं अपनी ‘डेब्यू स्टोरी’ भी कह सकती हूं। यह एक ऐसी ग्रामीण स्त्री की कहानी है जो सरपंच तो चुन ली जाती है लेकिन उसके सारे अधिकार उसकी पति की मुट्ठी में रहते हैं। स्त्रियों के विरुद्ध होने वाले अपराध को देख कर वह कसमसाती है। उसका पति उसे कोई भी कदम उठाने से रोकता है, धमकाता है लेकिन अंततः वह एक निर्णय लेती है आंसुओं से भीगे गीले अंधेरे के बीच। इस कहानी में बुंदेलखंड का परिदृश्य और बुंदेली बोली के संवाद हैं।


मेरी इस पहली कहानी ने मुझे ग्रामीण, अनपढ़ स्त्रियों के दुख-कष्टों के करीब लाया। शायद यहीं से मेरे स्त्रीविमर्श लेखन की यात्रा भी शुरू हुई। अपने उपन्यासों ‘पिछले पन्ने की औरतें’, ‘पचकौड़ी’ और ‘कस्बाई सिमोन’ की नींव में ‘गीला अंधेरा’ कहानी को ही पाती हूं। दरअसल, मैं यथार्थवादी लेखन में विश्वास रखती हूं और अपने आस-पास मौजूद जीवन से ही कथानकों को चुनती हूं, विशेषरूप से स्त्री जीवन से जुड़े हुए।


2. स्त्री-विमर्श को लेकर चलने वाले समकालीन लेखन पर आपके क्या विचार हैं? इस दृष्टि से आपका प्रिय लेखक? आपकी नजर में स्त्री-विमर्शकारों ने क्या कुछ ऐसा छोड़ दिया है, जिस पर लिखा जाना चाहिए?


स्त्री विमर्श, स्त्री मुक्ति, नारीवादी आंदोलन आदि किसी भी दिशा से विचार किया जाए इन सभी के मूल में एक ही चिन्तन दृष्टिगत होता है, स्त्री के अस्तित्व को उसके मौलिक रूप में स्थापित करना। स्त्री विमर्श को ले कर कभी-कभी यह भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि इसमें पुरुष को पीछे छोड़ कर उससे आगे निकल जाने का प्रयास है किन्तु ‘विमर्श’ तो चिन्तन का ही एक रूप है जिसके अंतर्गत किसी भी विषय की गहन पड़ताल कर के उसकी अच्छाई और बुराई दोनों पक्ष उजागर किए जाते हैं जिससे विचारों को सही रूप में ग्रहण करने में सुविधा हो सके। स्त्री विमर्श के अंतर्गत  भी यही सब हो रहा है। समाज में स्त्री के स्थान पर चिन्तन, स्त्री के अधिकारों पर चिन्तन, स्त्री की आर्थिक अवस्थाओं पर चिन्तन तथा स्त्री की मानसिक एवं शारीरिक अवस्थाओं पर चिन्तन - इन तमाम चिन्तनों के द्वारा पुरुष के समकक्ष स्त्री को उसकी सम्पूर्ण गरिमा के साथ स्थायित्व प्रदान करने का विचार ही स्त्री विमर्श है। प्राचीन ग्रंथ इस बात के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं कि वैदिक युग में समाज में स्त्री का विशेष स्थान था। उन्हंे यह अधिकार था कि वे शिक्षा प्राप्त कर सकें, उन्हें यह भी अधिकार था कि वे अविवाहित रह कर अध्ययन एवं आत्मोत्थान के प्रति समर्पित जीवन व्यतीत कर सकें, उन्हें अधिकार था कि वे पुरुषों के समान कार्य करती हुई उन्हीं की भांति सम्मान पा सकें, उन्हें चिकित्सा, नक्षत्र विज्ञान तथा मार्शल आर्ट पढ़ने-सीखने का भी अधिकार था। स्त्रियों के संदर्भ में इतिहास का मध्ययुग वह क्षेाभनीय युग था जब विदेशी आक्रांताओं ने देश पर आक्रमण किया और उनके द्वारा अपमानित किए जाने के भय से स्त्रियों को घरों में ‘बंदी’ बना दिया गया। उनके अधिकार एक-एक कर के छीन लिए गए, उनकी मनुष्य रूपी स्वतंत्रता के पंख काट दिए गए। सामाजिक जीवन में स्त्रियों की सहभागिता वास्तविक कम और प्रदर्शनीय अधिक रह गई। यहीं से उनके आर्थिक  एवं शैक्षिक अधिकारों का हनन आरम्भ हुआ। किन्तु ब्रिटिश शासन के अंतर्गत ही स्त्रियों को बराबरी के अधिकार दिए जाने के प्रयास शुरू किए गए। राजा राममोहन राय, ऐनी बेसेन्ट, सरोजनी नायडू, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, महात्मा फुले  आदि ने स्त्रियों को उन कुरीतियों से बचाने के लिए ऐतिहासिक प्रयास किए जिन कुरीतियों के कारण स्त्रियों को सती होना पड़ता था, बहुपत्नी प्रथा की शिकार होना पड़ता था तथा बालविवाह की जंजीरों में जकड़े रहना पड़ता था।

   देश की स्वतंत्रता के बाद स्त्रियों के सशक्तिकरण में जो तीव्रता आनी चाहिए थी, वह नहीं आई। संभवतः इसका एक बड़ा कारण देश के बंटवारे की त्रासदी थी जिसने स्त्रियों के सम्मान और जीवन को माखौल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक बार फिर मध्ययुगीन बर्बरता की यादें ताज़ा हो गईं जिसके परिणामस्वरूप स्त्रियों के सशक्तिकरण की गति अत्यंत धीमी पड़ गई। जागरूकता की लहर शहरों तक ही सीमित रही, ग्रामीण क्षेत्रें में प्रभाव न्यूनतम रहा (यदि काग़ज़ी अंाकड़ों को छोड़ दें)। जड़ सामाजिक परम्पराएं आज भी स्त्रियों की प्रगति की राह में रोड़ा बनी हुई हैं।

    एक स्त्री की शिक्षा पर उसका परिवार उसका दस प्रतिशत भी व्यय नहीं करता है जितना वह उस स्त्री के विवाह में दिखावे और दहेज के रूप में व्यय कर देता है। परिवार के लिए पुत्र का महत्व पुत्री की अपेक्षा आज भी अधिक है। स्त्री का दैहिक शोषण आज भी आम बात है।  घर, कार्यस्थल, सड़क, परिवहन, चिकित्सालय, मनोरंजन स्थल आदि कहीं भी स्त्री स्वयं को पूर्ण सुरक्षित अनुभव नहीं कर पाती है। स्त्री के आर्थिक अधिकार पुरुषों के बराबर न होने के कारण विवाहिताएं अपने पति द्वारा छोड़ दिए जाने से भयभीत रहती हैं। वे जानती हैं कि परितक्त्या स्त्री को समाज सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता है। बेशक गंावों में महिलाएं पंच, सरपंच चुनी जा रही हैं किन्तु इस योग्यता का सच किसी से छिपा नहीं है। अनेक महिला सरपंचों एवं पंचों का नाम तक अपने पति का नाम जोड़ कर चलता है, गोया उनके अपने नाम की कोई पहचान न हो। होता भी यही है, फलां की बहू, फलां की घरवाली के सम्बोधन को ले कर जीवन जी रही औरत जब अचानक राजनीति के अखाड़े में खड़ी कर दी जाती है तो वोट पाने के लिए मतदाताओं को यह जताना आवश्यक हो जाता है कि वह महिला उम्मीदवार किस परिवार की है, किसकी पत्नी है ताकि मतदाता उसके परिवार और उसके पति के रसूख को अनदेखा न कर सके। यदि इस स्थिति को गांवों में स्त्री की जागरूकता अथवा विकास का पर्याय मान लिया जाए तो यह स्वयं को एक सुन्दर धोखा देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

    नारीवादी आंदोलनों का संगठित रूप में भारत में अधिक पुराना इतिहास नहीं है। फिर भी विगत सौ वर्ष में जितने भी नारीवादी अंादोलन हुए उनके परिणामों के फलस्वरूप औरतों में जागरूकता का संचार हुआ, विशेष रूप से नगरीय औरतों में। अनेक महिला संगठन आज भी ग्रामीण औरतों का उत्थान करने तथा उन्हें विकास की मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं किन्तु हमारे देश में भौगोलिक विविधता के साथ-साथ सामाजिक विविधता भी बड़े पैमाने पर है, इन सब पर अभिशाप के रूप में आर्थिक विषमता मौजूद है जो किसी भी प्रयास के समरूप परिणाम में बाधा पहुंचाती है। जो आंदोलन अथवा संघर्ष दक्षिण भारत की ग्रामीण औरतों के लिए शतप्रतिशत सकारात्मक साबित होते हैं, वे उत्तर भारत की ग्रामीण औरतों पर खरे नहीं उतर सकते हैं। यही कारण है कि जिन महिला संगठनों की नीतियों के निर्धारण मैदानी क्षेत्र के अनुभवों को अनदेखा कर के महानगरीय वातावरण में बैठ कर किए जाते हैं वे सकारात्मक परिणाम नहीं दे पाते हैं।

     बुन्देलखण्ड की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति देश के अन्य क्षेत्रों से ही नहीं अपितु उत्तर भारत में भी अन्य क्षेत्रों से भिन्न है। यहंा भौगोलिक संसाधन तो पर्याप्त हैं किन्तु उनके दोहन की सुविधाएं न्यूनतम हैं। आर्थिक स्थिति का सीधा असर सामाजिक स्थिति पर पड़ता है। यदि समाज मुख्यधारा के साथ क़दम मिला कर प्रगति न कर पा रहा हो तो पारंपराओं एवं रीति-रिवाज़ों की भी प्रस्तुति (इंटरप्रिटीशन) ग़लत अपेक्षाओं के साथ की जाने लगती है। यह तथ्य लोक व्रत कथाओं के संदर्भ में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। जिस समाज में स्त्री की साक्षरता का प्रतिशत कम हो उस समाज में जो व्रत कथाएं स्त्री के अधिकारों की पैरवी करने वाली हों, उन्हें भी स्त्री को मानसिक रूप से  दलित बनाए रखने के लिए प्रयोग में लाया जाने लगता है।

स्त्री विमर्श को ले कर समकालीन लेखन पूरी गंभीरता के साथ सामने आ रहा है। स्त्रियां और विशेषरूप से लेखिकाएं अब मुखर हो गई हैं। वे बेझिझक उन बातों को अपनी लेखनी में उतार रही हैं जो बीते कल तक साहित्य के लिए प्रतिबंधित माने जाते थे। संदर्भगत मैं बीते कल के बारे में थोड़ा और स्पष्ट कर दूं कि यहां ‘बीते कल’ से मेरा आशय उस कल से है जिस पर विदेशी आक्रांताओं का साया भारतीय समाज को ग्रसित किए हुए था। घर की देहरी से पांव बाहर निकालने पर बंदिश, चेहरा दिखाने पर बंदिश, पर पुरुष से मिलना या बात करना तो दूर, पढ़ने-लिखने पर बंदिश... अनेक जंजीरें डाल दी गईं थीं स्त्री-जीवन पर। लेकिन विदेशी आक्रांताओं के पहले के समय पर दृष्टि डालें तो वहां स्त्रियां अनेक बंधनों से मुक्त दिखाई देती हैं। उन्हें वेदों को पढ़ने तक का अधिकार था। उन्हें अपनी इच्छा अनुसार वस्त्र पहनने का अधिकार था। गंधर्व विवाह एवं स्वयंवर के रूप में अपना जीवन साथी चुनने का अधिकार था। वस्तुतः राजनीतिक वर्चस्व ने पुरुषों की श्रेष्ठता को उनके गुणों के बदले अवगुणों में ढाल दिया और पुरुषों ने अपनी सामाजिक सत्ता का दुरुपयोग करते हुए स्त्रियों के अस्तित्व को खण्डित करने में ही अपनी शक्ति लगानी शुरू कर दी। इसका एक ज्वलंत उदाहरण ‘महाभारत’ महाकाव्य में ‘शिखण्डी’ के रूप में मिलता है। महाभारत काल के भीष्म-प्रतिज्ञ पुरुष भीष्म पितामह ने काशी की तीन राजकुमारियों का अपहरण कर उनके जीवन को ग्रहण लगा दिया। उन्हीं तीन राजकुमारियों में से एक आगे चल कर शिखण्डी के रूप में हमारे सामने आती है।


हिन्दी साहित्य में मैत्रेयी पुष्पा, चित्रा मुद्गल, ममता कालिया, मृदुला गर्ग, प्रभाखेतान, सुधा आरोड़ा, अनामिका आदि वरिष्ठ लेखिकाओं ने स्त्री जीवन को अपने-अपने दृष्टिकोण से सामने रखा है। इन सभी का लेखन महत्वपूर्ण है। उर्दू में साहित्य में मुझे कुर्तलुनऐन हैदर सबसे अधिक प्रभावित करती हैं। स्त्री जीवन को देखने का उनका दृष्टिकोण बहुत ही मर्मस्पर्शी है। उनकी कृतियों में कई बार वे अंतर्मन को झकझोरने की ताकत अनुभव होती है, गोया वे रेशा-रेशा बयान करके सबकुछ ठीक करने देने की इच्छा रखती हों।

 

जहंा तक स्त्री विमर्श का प्रश्न है तो स्त्री विमर्श, स्त्री मुक्ति, नारीवादी आंदोलन आदि - इन सभी के मूल में एक ही चिन्तन दृष्टिगत होता है, स्त्री के अस्तित्व को उसके मौलिक रूप में स्थापित करना। स्त्री विमर्श को लेकर कभी-कभी यह भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि इसमें पुरुष को पीछे छोड़ कर उससे आगे निकल जाने का प्रयास है किन्तु ‘विमर्श’ तो चिन्तन का ही एक रूप है जिसके अंतर्गत किसी भी विषय की गहन पड़ताल कर के उसकी अच्छाई और बुराई दोनों पक्ष उजागर किए जाते हैं जिससे विचारों को सही रूप ग्रहण करने में सुविधा हो सके। स्त्री विमर्श के अंतर्गत  भी यही सब हो रहा है। समाज में स्त्री के स्थान पर चिन्तन, स्त्री के अधिकारों पर चिन्तन, स्त्री की आर्थिक अवस्थाओं पर चिन्तन तथा स्त्री की मानसिक एवं शारीरिक अवस्थाओं पर चिन्तन - इन तमाम चिन्तनों के द्वारा पुरुष के समकक्ष स्त्री को उसकी सम्पूर्ण गरिमा के साथ स्थायित्व प्रदान करने का विचार ही स्त्री विमर्श है।

स्त्री विमर्शकारों ने क्या कुछ छोड़ दिया है? इस प्रश्न का उत्तर अभी दे पाना संभव नहीं है, यह समय पर अतिक्रमण करने वाली बात होगी। अभी तो स्त्रीविमर्श की यात्रा ज़ारी है। किसी यात्रा के थमने या समाप्त होने के बही उसका आकलन उचित होता है, पहले नहीं।  


3. आपके प्रिय विदेशी रचनाकार और चिंतक? क्या स्त्री-विमर्श का कोई भारतीय चेहरा हो सकता है? यदि हाँ तो उसकी रूपरेखा क्या होगी?


मैंने लियो टाॅल्सटाय, मक्सिम गोर्की, दोस्तोएव्स्की, निकोलाई आस्त्रोवस्की, विलियम शेक्सपियर, कार्ल मार्क्स, जेन ऑस्टेन, फ्रेंच काफ्का, सिमोन द बोआ आदि प्रसिद्ध विदेशी लेखक-लेखिकाओं के साहित्य को पढ़ा है।

जहां तक स्त्री विमर्श के भारतीय चेहरे का प्रश्न है तो भारतीय सामाजिक परिवेश के लिए विदेशों से चेहरा नहीं ढूंढा जा सकता है और यह उचित भी नहीं है। भारत के सामाजिक मूल्य, सामाजिक अर्थवत्ता एवं समग्र वातावरण के अनुरुप विचार ही भारतीय स्त्री के विमर्श को चिंतन की ऊंचाइयों तक ले जा सकते हैं। इसके लिए किसी एक चेहरे को ढूंढना भी मैं उचित नहीं समझती हूं। यह समग्र की अवहेलना होगी। स्त्रीविमर्श के चिंतन को समग्र की दृष्टि से ही देखा जाना चाहिए, इसमें कई चेहरे मिल कर एक कैनवास तैयार कर रहे हैं, कोई एक चेहरा नहीं।  


4. आपके पात्रों में क्या शरद सिंह बोलती हैं या पात्र अपनी आवाज में बात कर रहे होते हैं? उन्हें शरद सिंह की सोच गढ़ती है या वे जीवन का हूबहू चित्रण है?


मेरे पात्रों में मैं नहीं होती हूं, अपितु मेरे पात्र ही होते हैं जो मेरी लेखनी के माध्यम से अपने जीवन की पर्तें खोलते जाते हैं। यदि लेखिका के रूप में मैं अपने लेखन में अपनी उपस्थिति को स्पष्ट करूं तो यही कहूंगी कि यह एक तरह का कायांतरण (ट्रांसफार्मेशन) होता है। मैं चिंतन, मनन और शोध से उस पात्र को महसूस करती हूं जिसके बारे में मैं लिख रही होती हूं। यहां लिंग (जेंडर) और अविवाहित होना (मेरिटल स्टेटस) भी गौण हो जाता है। जैसे- ‘पिछले पन्ने की औरतें’ में मैं हर बेड़नी के साथ स्वयं को पाती हूं और उसकी पीड़ा को आत्मसात करने का प्रयास करती हूं ताकि सच सबके सामने रख सकूं। जब मैंने ’पचकौड़ी’ उपन्यास लिखा तो एक साथ दो विपरीत लिंगी पात्रों को अपनी लेखनी में जिया - पचकौड़ी, वसुंधरा उर्फ़ ठकुराईन और शेफाली। वहीं ‘कस्बाई सिमोन’ में मैं स्वयं को सुगंधा के साथ खड़ा पाती हूं। फिर जब ‘शिखण्डी’ उपन्यास लिखती हूं तो कालयात्रा करती हुई उस स्त्री के तीन जन्मों तक उसके साथ होती हूं जो महाभारत महाकाव्य में शिखण्डी के नाम से एक विशिष्ट पात्र है।

    मैं अपने कथानक समाज से चुनती हूं। जब कथानक यथार्थ से उपजे होते हैं तो स्पष्ट है कि मेरे पात्र भी एकदम सच्चे और इसी समाज का हिस्सा होते हैं। बस, मैं उन्हें कथासूत्र में बांधने का काम करती हूं ताकि पाठक को रोचकता का अनुभव हो और वह सच से भी साक्षात्कार कर ले।


5. ‘पिछले पन्ने की औरतें’ एवम् ‘कस्बाई सिमोन’ उपन्यासों को लिखने के पीछे आपकी क्या भावना रही है?


ये दोनों सर्वथा भिन्न कथानकों के उपन्यास हैं। ‘पिछले पन्ने की औरतें’ उन स्त्रियों के पक्ष में आवाज़ उठाता है जो सदियों से सामाजिक शोषण और उपेक्षा को सह रही हैं जबकि ‘कस्बाई सिमोन’ उन स्त्रियों की बात करता है जो लिवइन रिलेशन में अपनी स्वतंत्रता ढूंढती हैं। तो पहले चर्चा करूंगी ‘पिछले पन्ने की औरतें’ के बारे में।

प्रत्येक नई धारा का प्रथम दृष्टि में ही स्वागत हो यह जरूरी नहीं है। हिन्दी साहित्य में रिपोर्ताजिक उपन्यास नगण्य रहे हैं, फिर भी मैंने जोखिम उठाते हुए अपने पहले उपन्यास में ही रिपोर्ताजिक शैली को अपनाया। इसी बात को यदि मैं और अधिक स्पष्ट शब्दों में कहूं तो रिपोर्ताजिक शैली ने मेरे उपन्यास के कलेवर को आत्मसात कर लिया और उसे उस बिन्दु तक पहुंचाया जहंा साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। यदि आप जीवन के तथ्यों को उसकी समग्रता के साथ सामने रखना चाहते हैं और साथ ही विश्वास दिलाना चाहते हैं कि उपन्यास के रूप में जो कुछ कहा जा रहा है उसमें नब्बे से पन्चान्बे प्रतिशत सच है तो फिक्शन की जगह सच्चाई को अधिक से अधिक जगह देनी होगी। वरना कल्पना की अधिकता सच को भी काल्पनिकता में बदलने लगती है।

हिन्दी उपन्यासों में शोधात्मक कथानकों को ले कर जोखिम उठाने की प्रवृति अभी पूर्ण व्यवहार में नहीं आई है। ऐसे समय में मेरा उपन्यास ‘पिछले पन्ने की औरतें’ कथानक और शिल्प दोनों की दृष्टि से परंपरागत मानकों से अलग हट कर था तो यश और अपयश दोनों का सामना मुझे करना ही था, जो मैंने किया भी।  नवीनता सदा जोखिम भरी होती है। लेकिन नवीनता ही चेतना का संचार करती है, उपन्यास की शैली और कथानक को ले कर यही मेरा मानना है। मुझे प्रसन्नता है कि पाठकों ने उसे दिल से स्वीकार किया।

बेड़िया समाज की औरतों यानी बेड़नियों के बारे में लिखने के लिए आवश्यक था कि मैं उनके बीच जा कर कुछ समय बिताऊं और उनकी जीवन-दशाओं से साक्षात्कार करूं। मैंने जब अपनी मंशा अपने मित्रों और परिचितों को बताई कि मैं बेड़नियों के जीवन पर कुछ लिखना चाहती हूं तो उनमें से कुछ ने मुझे ऐसा न करने की सलाह दी। वे इस तरह से जता रहे थे गोया मैं किसी निषिद्ध क्षेत्र में विचरण करने जा रही हूं। कुछ ने कहा कि इससे कुछ नहीं होने वाला है, न वे आपको सहयोग देंगी और न आपके लिखने से उनका भला होगा। मैंने भी ऐसे लोगों को यही उत्तर दिया कि यदि सब कुछ नकारात्मक ही सोच लिया जाए तो जीवन में सकारात्मक कुछ बचेगा ही नहीं। अरे, मुझे प्रयास तो करने दीजिए, चमत्कार की आशा तो मैं भी नहीं रखती हूं। वैसे इस प्रयास में सबसे अधिक मानसिक सहयोग मुझे मेरी दीदी डाॅ. वर्षा सिंह से मिला। यूं भी वे मुझे सदा प्रोत्साहित करती रहती हैं।

बहरहाल, मेरे सामने दूसरी सबसे बड़ी कठिनाई यह थी कि मैं उन स्त्रियों से उनकी सच्चाई स्वीकार करवा सकूं। जिन दिनों मैं बेड़नियों की निजी ज़िन्दगी में झंाकने का प्रयास कर रही थी तो कई बार मुझे लगा कि मैं उनसे उनके पूरे भेद नहीं ले सकूंगी। मैंने पाया कि वे देहव्यापार भले ही करती हैं किन्तु उनके भीतर की औरत पूरी तरह मरी नहीं है, वह सांस ले रही है और खुल कर बाहर आना चाहती है। उनमें स्त्रीसुलभ झिझक थी जिसके कारण वे दो-तीन मुलाकातों के बाद स्वीकार करने को तैयार हुईं कि वे देह-व्यापार करती हैं। वे भी शायद मेरे धैर्य और साहस की परीक्षा ले रही थीं। इसीलिए एक बेड़नी ने मुझे लगभग चुनौती देते हुए कहा था,‘ऐसा है तो दो दिन हमारे घर ठहर कर देखो, फिर अपनी अंाखों से देख लेना।’    

मैंने भी कहा, ‘ठीक है!’ और मैं उनमें से एक के घर दो-दो, तीन-तीन दिन के लिए दो-तीन बार जा कर ठहरी।  मेरे इस व्यवहार ने उन्हें मेरे प्रति पिघला दिया और वे अपने जीवन की परतें खोलने को राजी हो गईं। मैंने पाया कि मैंने उनका विश्वास जीत लिया है फिर लिखते समय उनके विश्वास के साथ घात कैसे कर सकती थी? मेरे लिए शिल्प से कहीं अधिक उनके विश्वास का महत्व था जो पीड़ा के रूप में व्यक्त हो जाने को उद्यत था, और मुझे उस पीड़ा का साथ देना ही था। आखिर बेड़नियां सदियों से अपने दुर्भाग्य को जी रही हैं।

अब चलिए बात करते हैं ‘कस्बाई सिमोन’ की। इसका कथानक भी यथार्थ से उपजा हुआ है। आरम्भ में यह एक छोटी कहानी थी जो लिवइन रिलेशन के स्त्रीपक्ष को जांचते हुए एक उपन्यास का विस्तार लेती चली गई। वस्तुतः लिवइन रिलेशन पाश्चात्य विचारधारा है लेकिन हमारे आधुनिक समाज में जब स्त्रियां महानगरों में अकेली रहती हुई अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं, लिवइन रिलेशन का विचार उन्हें अपने हित में महसूस होता है। लेकिन क्या वाकई यह विचारधारा भारतीय स्त्रियों के हित में है? यह प्रश्न जब मेरे मन में कौंधा तो इसके साथ ही एक प्रश्न और उठ खड़ा हुआ कि यदि किसी छोटे शहर या कस्बे की युवती लिवइन रिलेशन में रहने लगे तो उसे किन परेशानियों का सामना करना पड़ेगा? मैंने उन महिलाओं से भेंट की, चर्चा की जो लिवइन रिलेशन में रह रही थीं या रह चुकी थीं। संयोग से उनमें एक मेरी परिचित भी थी। उससे मुझे लिवइन रिलेशन के उन गोपन पक्षों की जानकारी मिली जो शायद एक अपरिचित स्त्री कभी साझा नहीं करती। लिवइन रिलेशन की विचारधारा एवं जीवनचर्या की पड़ताल के दौरान अनेक चैंकाने वाले तथ्य मेरे सामने आए। सोचने वाली बात है कि बिना विवाह किए साथ रहने के समझौते में जीवन बिताने का विचार रखने वाले स्त्री-पुरुष में यदि धीरे-धीरे पति की अधिकार भावना और पत्नी की पति से दब कर रहने की भावना बलवती होने लगे तो वहीं लिवइन रिलेशन की अवधारणा खण्डित हो जाती है। किसी मित्र के सपरिवार मिलने पर यदि लिवइन रिलेशन का सहचर साथी अपनी सहचरी को लिवइन रिलेशन में साथ रहने वाली स्त्री के रूप में परिचय न दे कर ‘तुम्हारी भाभी’ के रूप में परिचय दे या लिवइन रिलेशन में रहने वाली स्त्री समाज के दबाव में आ कर अन्य विवाहिताओं के साथ करवांचैथ का व्रत रखे तो ऐसे में लिवइन रिलेशन की अवधारणा कहां बची? इसका एक और घिनौना पक्ष है कि एक पुरुष एक से अधिक स्त्रियों के साथ उन्मुक्त संबंध बना कर भी अपने वैवाहिक जीवन के लिए एक पत्नी पा लेता है लेकिन एक स्त्री बिना विवाह के किसी पुरुष के साथ रह ले और फिर संबंध विच्छेद कर ले तो उस पर ‘‘फलां के साथ रह चुकी’’ का टैग लग जाता है जिसका उल्लेख इस तरह किया जाता है गोया वह निहायत पथभ्रष्ट स्त्री हो।

मैंने अपने उपन्यास ‘‘कस्बाई सिमोन’’ में लिवइन रिलेशन की अवधारणा का न तो समर्थन किसा है और न विरोध। मैं यह मानती हूं कि हर व्यक्ति को अपना जीवन अपनी इच्छानुसार जीने का अधिकार होता है। लेकिन भारतीय सामाजिक परिवेश में लिवइन रिलेशन की अवधारणा के अच्छे और बुरे पक्ष को तटस्थ भाव से सामने रखने के लिए इस विषय को अपने उपन्यास का कथानक बनाया। मैं तो यही मानती हूं कि लिवइन रिलेशन एक आग का दरिया है, जिसमें जोखिम उठा सकता हो वह इसमें प्रवृत्त हो अन्यथा वैवाहिक अवधारणा को अपनाए। विशेषरूप से स्त्रियों को इस अवधारणा की बारीकियों एवं ज़मीनी कठिनाइयों को पहले परख लेना चाहिए।

समस्या क्या है कि प्रायः लोग विषय को ले कर अपने मन में तरह-तरह पूर्वाग्रह पाल लेते हैं। ऐसे में उनके लिए कथानक के मर्म को समझ पाना ज़रा कठिन हो जाता है। जब आप किसी नए विषय पर कोई कृति पढ़ रहे हों तो आपको अपना मन-मस्तिष्क सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों से मुक्त रखना चाहिए अन्यथा नकारात्मक विचार कृति के सकारात्मक तत्वों से ध्यान हटा देते हैं। वैसे आज का पाठकवर्ग, विशेषरूप से युवा पीढ़ी बहुत समझदार है। वह हर तथ्य को सूक्ष्मता से समझना-बूझना चाहती है और जीवन की जटिलताओं के बीच रास्ता पा लेती है।  

 

6. एक युवा स्त्री की जीवन-नीति संबंधी मान्यता क्या है?

 

युवा स्त्रियों का आर्थिक सशक्तीकरण सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है। आर्थिक रूप से आश्रित होना ही स्त्री को कमजोर बनाता है। लेकिन अर्थव्यवस्था में स्त्रियों और युवतियों को समाहित करने और कार्यस्थलों एवं सार्वजनिक स्थानों को सुरक्षित बनाने के साथ-साथ स्त्रियों और युवतियों के साथ होने वाली हिंसा को रोकने की भी जरूरत है। साथ ही समाज में उनकी पूर्ण भागीदारी और उनके स्वास्थ्य एवं संपन्नता पर भी ध्यान दिया जाना आवश्यक है।

 

उचित अवसर मिलने पर युवतियां देश का सामाजिक और आर्थिक भाग्य बदल सकती हैं। लेकिन इस परिवर्तन के लिए सतत निवेश और भागीदारी की जरूरत है, साथ ही युवतियों के स्वास्थ्य, शिक्षा एवं रोजगार से संबंधित मुद्दों पर व्यापक रूप से काम करने की आवश्कता है। युवतियों का मनोबल बढ़ाया जाना चाहिए और जिन क्षेत्रों का प्रत्यक्ष प्रभाव उनके भविष्य पर पड़ने वाला है, विशेष रूप से उन क्षेत्रों से संबंधित फैसलों में उन्हें सहभागी बनाया जाना चाहिए।

इस सबसे पहले आवश्क है कि युवतियों को यौनहिंसा से मुक्त समाज मिले जहां वे अभया हो कर अपना कौशल और अपनी क्षमताएं दिखा सकें। स्त्रियों के साथ हिंसा का एक और पक्ष है- घरेलू हिंसा। दुर्भाग्यवश हमारे देश में स्त्रियों के विरुद्ध घरेलू हिंसा, देश का सबसे अधिक हिंसक अपराध रहा है। चूंकि हर पांच मिनट में घरेलू हिंसा की एक घटना दर्ज़ होती है। इसलिए युवा स्त्रियों को हिंसा के प्रत्येक रूप का विरोध करना आना चाहिए।

 

6. पुरुष की ईर्ष्यालु मनोवृत्ति का जगह-जगह सामना करना पड़ता है? क्या यह सच है? आपके अनुभव क्या हैं?

 

 ईर्ष्यालु तो एक मानवीय प्रवृत्ति है। पुरुष भी ईर्ष्यालु होते हैं और स्त्रियां भी। किसी भी व्यक्ति के भीतर ईर्ष्या के भाव तभी जागते हैं जब वह कुंठा से घिर जाता है। ईर्ष्या मनुष्य द्वारा अनुभव की जाने वाली सबसे दर्दनाक और विवादास्पद भावनाओं में से एक है। ईर्ष्या एक भावना है, और यह शब्द आम तौर पर विचारों और असुरक्षा की भावना को दर्शाता है। ईष्र्या अक्सर क्रोध, आक्रोश, अपर्याप्तता, लाचारी और घृणा के रूप में भावनाओं का एक संयोजन होता है। शायद दुनिया में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसने इस भावना का अनुभव नहीं किया होगा। ईर्ष्या की भावना पुरुषों और महिलाओं दोनों की समान रूप से पाई जाती है। अंतर केवल इस भावना को व्यक्त करने के तरीकों में है। बहुसंख्यक पुरुष आक्रामक हो कर अपनी ईर्ष्या  प्रकट करते हैं, वहीं ऐसी स्त्रियां कम ही हैं जो ईर्ष्या में सभी सीमाएं लांघ जाएं।

   निसंदेह, मुझे भी अपने जीवन में ईष्यालुओं से पाला पड़ा है किन्तु मैंने उनकी ओर कभी उस सीमा तक ध्यान नहीं दिया कि मैं अपने मूलकर्म से विचलित हो जाऊं। हमारी संस्कृति और संस्कार यही तो सिखाते हैं कि ईर्ष्या कोई ऐसा आवश्यक प्रश्न नहीं है कि जिसका उत्तर दिया जाए। ईर्ष्या को अनुत्तरित रहने दें, फिर देखें कि आप उससे प्रभावित हुए बिना आगे बढ़ सकते हैं।  

 

 

7. स्त्री लेखन पुरुष लेखन से किस प्रकार भिन्न होता है?

 

यूं तो लेखन को स्त्री और पुरुष के खांचे में रखना मुझे पसंद नहीं है लेकिन जब बात कथानक की हो तो स्त्री लेखन और पुरुष लेखन में अंतर को नकारा नहीं जा सकता है और इस अंतर का सीधा कारण है अनुभव क्षेत्र की परस्पर भिन्नता। जैसे एक स्त्री पुरुष के मन और जीवन के हर तत्व को समझ नहीं सकती है, ठीक उसी प्रकार पुरुष भी स्त्री जीवन के निजी अनुभवों और कठिनाइयों को अक्षरशः भांप नहीं सकता है। इसलिए दोनो के लेखन में परस्पर भिन्न अनुभवों के स्वर मुखर होते हैं जो एक-दूसरे के पूरक बनते हैं, न कम-न अधिक। दोनों की अपनी समान महत्ता है और दोनों की समान उपादेयता है।

 

8. आपके रचनाकर्म के क्या कुछ ऐसे पक्ष हैं जो पाठकों, टिप्पणीकारों, शोधार्थियों या आलोचकों की समझ से छूट गये हों?

 

मेरी एक कविता की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं-

कुछ न कुछ छूट जाता है हर बार

एक उलाहने के लिए

छूटना भी चाहिए

अन्यथा

अवरुद्ध हो जाएगें

परस्पर संवाद।

तो छूटने के बारे में मैं क्या बताऊं, आपके इस प्रश्न का उत्तर तो पाठक, टिप्पणीकार, शोधार्थी या आलोचक ही दे सकते हैं कि वह मेरे लेखन में क्या नहीं समझ पाए? आप भी एक शोधार्थी हैं, यदि आप इस प्रश्न का कोई उत्तर देना चाहें तो उसे अपने शोधकार्य में अवश्य शामिल करें। 

 

आपको आपके उज्ज्वल भविष्य के लिए हार्दिक शुभकामनाएं!

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सागर शहर का साहित्यिक परिदृश्य - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह

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Dr (Miss) Sharad Singh

लेख 


सागर शहर का साहित्यिक परिदृश्य


- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह


      किसी भी क्षेत्र की सांस्कृतिक एवं जातीय पहचान उस क्षेत्र के साहित्य एवं साहित्यिक गतिविधियों से होती है। साहित्य में क्षेत्रविशेष के संस्कार, परम्परा एवं नवाचार का प्रतिबिम्ब दृष्टिगोचर होता है। अतीत, वर्तमान और भविष्य को एक साथ जोड़ कर चलना साहित्य में ही संभव है। सागर साहित्य एवं संस्कृति जगत् में अपनी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए देश में ही नहीं वरन् विदेशों में भी विख्यात है। यहां के साहित्यकारों की रचनाएं विश्व के विभिन्न विश्वविद्यालयों में शोधसंदर्भ के रूप में पढ़ी जाती हैं तथा उन पर शोध कार्य भी किया जाता है। वस्तुतः सागर की भूमि साहित्य सृजन के लिए सदा से उर्वरा रही है। यदि अतीत के पन्ने पलटे जाएं तो एक से बढ़ कर एक कालजयी कवि और उनकी रचनाएं दिखाई देती हैं। जिनमें सर्वप्रथम कवि पद्माकर (सन् 1753-1833) का नाम लिया जाना उचित होगा। सागर झील के तट पर स्थित चकराघाट पर स्थापित कवि पद्माकर की प्रतिमा आज भी सागर के साहित्यकारों के लिए प्रेरणास्त्रोत का कार्य कर रही है। पद्माकर रचित ग्रंथों में पद्माभरण, जगद्विनोद, गंगालहरी, प्रबोध पचासा, ईश्वर पचीसी, यमुनालहरी आदि प्रमुख हैं। प्रतिवर्ष होली पर सागर का साहित्यवृंद सुबह-सवेरे सबसे पहले चकराघाट पहुंच कर कवि पद्माकर की प्रतिमा को नमन करता है, उन्हें गुलाल लगाता है और इसके बाद ही होली खेलने तथा होली पर केन्द्रित रचनापाठ का क्रम शुरू होता है। कवि पद्माकर के अनुप्रास अलंकार की बहुलता वाले कवित्त छंद हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। उनका यह लोकप्रिय कवित्त देखें -

फागु के भीर अभीरन तें गहि, गोविंदै लै गई  भीतर गोरी 

भाय करी मन की पदमाकर,  ऊपर  नाय अबीर की झोरी 

छीन पितंबर कंमर तें,  सु बिदा  दई  मोड़ि कपोलन रोरी 

नैन नचाई, कह्यौ मुसकाई, लला! फिर खेलन आइयो होरी

Mahakavi Padmakar, Chakraghat, Sagar MP


सागर के साहित्य कोे समय के साथ चलना बखूबी आता है। यहां के साहित्यकारों ने उत्सव के समय उत्सवधर्मिता को अंगीकार किया तो वे स्वतंत्रता संग्राम के समय स्वतंत्रता के पक्ष में स्वर बुलंद करने में आगे रहे। 14 मार्च 1908 को नरसिंहपुर जिले के करेली में जन्मे पं. ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी अपनी बाल्यावस्था से ही सागर आ गए थे और जीवनपर्यन्त सागर में रहते हुए उन्होंने साहित्य सृजन किया। उनकी प्रसिद्ध पंक्तियां हैं- 

जनम जनम के हैं हम बागी, 

लिखी बगावत भाग्य हमारे

जेलों मे है कटी जवानी, 

ऐसे ही कुछ पड़े सितारे

Pt. Jwala Prasad Jyotishi

पं. ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी के समय रामसिंह चैहान बेधड़क, शंकरलाल तिवारी ‘बेढब सागरी’, पं. लक्ष्मी प्रसाद मिश्र ‘कवि हृदय’ साहित्य सृजन कर रहे थे। हिन्दी, उर्दू और बुंदेली में साहित्य सृजन करते हुए इस यात्रा को आगे बढ़ाया इकराम सागरी, लक्ष्मण सिंह निर्मम, जहूर बख़्श, दीनदयाल बालार्क, जयनारायण दुबे, पं. लोकनाथ सिलाकारी, नेमिचन्द ‘विनम्र’, विठ्ठल भाई पटेल, रमेशदत्त दुबे, माधव शुक्ल मनोज, शिवकुमार श्रीवास्तव, अखलाक सागरी आदि ने। साथ ही पन्नालाल साहित्याचार्य ने दार्शनिकतापूर्ण साहित्य का सृजन किया।

 

अपने मौलिक सृजन से साहित्यजगत को उल्लेखनीय रचनाएं एवं कृतियां देने वाले सागर के साहित्यकारों में से कुछ प्रमुख नाम हैं- महेन्द्र फुसकेले, डाॅ. विद्यावती ‘मालविका’, डाॅ. राधावल्लभ त्रिपाठी, डाॅ. गोविंद द्विवेदी, प्रो कांति कुमार जैन, लक्ष्मी नारायण चैरसिया, डाॅ. सुरेश आचार्य, कपूरचंद बैसाखिया, दिनकर राव दिनकर, यार मोहम्मद यार, निर्मलचंद ‘निर्मल’, हरगोविंद विश्व, डाॅ. गजाधर सागर, मणिकांत चैबे ‘बेलिहाज़’, डाॅ. वर्षा सिंह, डाॅ. श्याम मनोहर सीरोठिया, डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह, वृंदावन राय ‘सरल’, अशोक मिजाज़ बद्र, टीकाराम त्रिपाठी ‘रुद्र’, डाॅ. महेश तिवारी, डाॅ. लक्ष्मी पाण्डेय, डाॅ. सरोज गुप्ता, डाॅ. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी, वीरेन्द्र प्रधान, डाॅ. वंदना गुप्ता, सतीश पांडे आदि। इनमें से प्रो कांति कुमार जैन, डाॅ. राधावल्लभ त्रिपाठी, डाॅ. सुरेश आचार्य, डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह, अशोक मिजाज़ बद्र का सागर का नाम देश ही नहीं बल्कि विदेशों तक पहुंचाने में उल्लेखनीय योगदान है। 


सागर में साहित्यक आयोजनों की गरिमापूर्ण परम्परा रही है। कोरोनाकाल के पूर्व कविगोष्ठी, कवि सम्मेलन, चर्चा-परिचर्चा, कथावाचन, समीक्षा वाचन आदि के माध्यम से विभिन्न साहित्यिक संस्थाएं साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक आयोजन सततरूप से कर रही थीं। कोरोना संक्रमण की गंभीरता को देखते हुए सागर की साहित्यिक संस्थाओं नेे समय के अनुरुप स्वयं को ढाला है और वे आॅनलाईन आयोजनों से जुड़ती चली गई हैं। वर्तमान कोरोनाकाल में कई संस्थाएं सक्रिय हैं जो निरंतर आॅनलाईन आयोजन करती रहती हैं। इस कोरानाकाल में साहित्यिक गोष्ठियों ने आॅनलाईन हो कर सोशल मीडिया पर अपनी ज़ोरदार उपस्थिति दर्ज़ कराई है। व्हाट्सएप्प ग्रुप, फेसबुक लाईव, जूम एप्प हो या गूगल मीट इन सभी पर गोष्ठियां जारी हैं। बुंदेलखंड हिन्दी साहित्य संस्कृति विकास मंच के द्वारा प्रति शनिवार आॅनलाईन कविगोष्ठी का आयोजन किया जाता है। जिसमें संभाग ही नहीं वरन् देश के विभिन्न अंचलों के कवि-कवत्रियों  द्वारा रचनापाठ किया जाता है। इस संस्था के संयोजक मणीकांत चैबे ‘बेलिहाज़’ अपने पुत्र अमित चैबे के तकनीकी सहयोग से इस आयोजन की नियमितता को बनाए हुए हैं। सागर नगर में भव्य साहित्यिक समारोहों के लिए विख्यात श्यामलम संस्था के अध्यक्ष उमाकांत मिश्र एवं सचिव कपिल बैसाखिया ने अपने अथक प्रयासों से साहित्यकार सम्मान, साहित्यकारों को श्रद्धांजलि एवं रचनापाठ का क्रम आॅनलाईन जारी रखा है। उल्लेखनीय है कि श्यामलम संस्था का अपना एक संवेदनशील इतिहास है। संस्था के संस्थापक  श्यामाकांत मिश्र ने बाॅलीवुड में अपने अभिनयकाल के दौरान महसूस किया कि मुंबई की चकाचैंध भरी सिनेमाई दुनिया में संवेदना की कमी है। इसी के साथ उनके मन में विचार आया कि एक ऐसी संस्था अपने गृह नगर सागर में गठित की जाए जिसका उद्देश्य दिवंगत साहित्यकारों को श्रद्धांजलि देना हो। दुर्भाग्यवश वे अपनी संस्था को विकसित होते नहीं देख पाए। किन्तु उनके निधन के उपरांत उनके अनुज द्वय उमाकांत मिश्र एवं रमाकांत मिश्र ने अपने बड़े भाई स्व. श्यामाकांत मिश्र के सपनों को साकार करने में अपना पूरा योगदान दिया है। 


प्रादेशिक स्तर की साहित्यिक संस्थाओं की सागर इकाईयां भी वर्तमान में डिज़िटल माध्यमों को अपनाते हुए आॅनलाईन आयोजनों में संलग्न हैं। अध्यक्ष आशीष ज्योतिषी एवं सचिव पुष्पेन्द्र दुबे मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन की सागर इकाई के तत्वावधान में साप्ताहिक गोष्ठियों का आयोजन करते रहते हैं। इसी प्रकार अध्यक्षद्वय टीकाराम त्रिपाठी रुद्र एवं सतीश पांडे द्वारा मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ की सागर एवं मकरोनिया इकाईयों के अंतर्गत् आॅनलाईन काव्यपाठ एवं परिचर्चा का आयोजन कराया जाता है। मध्यप्रदेश हिन्दी लेखिका संघ की सागर इकाई की अध्यक्ष सुनीला सराफ द्वारा काव्य गोष्ठी, परिचर्चा आदि का आयोजन किया जाता है। इस वर्ष कोरोना आपदा के कारण सागर इकाई की स्मारिका ‘अन्वेषिका’ का मुद्रण एवं वितरण संभव नहीं हो पाने के कारण उसे ई-पत्रिका के रूप में प्रकाशित किया गया। यह कदम सागर के साहित्य जगत् में लेखिका संघ का एक उल्लेखनीय डिज़िटल कदम कहा जा सकता है। मध्यप्रदेश हिन्दी लेखक संघ की सागर इकाई, सागर साहित्यकार संघ भी आॅनलाईन काव्य गोष्ठियों का आयोजन कर रहे हैं। इसके साथ ही नगर के उत्साही युवा यूट्यूब पर चैनल्स चला कर साहित्य की डिज़िटल सेवा कर रहे हैं। जैसे वरुण प्रधान द्वारा ‘प्रधाननामा’ चैनल में सागर के साहित्यकारों का व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रस्तुत किया जा रहा है। 


विपरीत परिस्थितियों में नवाचार को अपनाकर अडिग रहना साहित्यकारों एवं साहित्यसेवियों की विशेषता होती है। इस विशेषता को चरितार्थ करते हुए सागर का साहित्यकार समाज, साहित्य की मशाल को अपनी लेखनी के जरिए उठाए हुए निरंतर आगे बढ़ रहा है और अपने साहित्य के प्रकाश से समाज का पथ-प्रदर्शक बना हुआ है। इसमें दो मत नहीं कि सागर सही अर्थों में साहित्य का महासागर बनता जा रहा है। 

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डॉ (सुश्री) शरद सिंह 

सागर (म.प्र.) 470004


 

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