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पुराने कपड़े | कहानी | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

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Purane Kapade, Story by Dr. (Miss) Sharad Singh
कहानी

पुराने कपड़े

 -   डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

 सागर सेकानपुर जाते समय रास्ते में एक ढाबे पर गाड़ी रोकी गई। गाड़ी हमसबने मिल कर किराए पर ली हुई थी अतः हम अपनी मर्ज़ी के मालिकथे। जहाँ चाहे वहाँ रुक कर दानापानी का जुगाड़ कर सकते थे।सागर में झाँसी के बीच हम रुके थे। झाँसी में भी हम रुके थे।इसके बाद इरादा तो यही था कि अब अपनी मंज़िल अर्थात कानपुरपहुँच कर ही गाड़ी से उतरेंगे। किंतु हम अपने निश्चय पर अडिग नरह सके। किसी को लघुशंका की आवश्यकता महसूस होने लगी तो किसीको प्यास लगने लगी और स्वयं मेरा शरीर बैठेबैठे जाम होने लगाथा।

हमारी गाड़ी का ड्राइवर भी मस्तमौला जीव था। वह हर बात के लिएतैयार रहता था। चलते रहना हो तो उसे कोई आपत्ति नहीं थी और यदिठहरना हो तो उसे कोई परेशानी नहीं थी। खानेपीने के मामले मेंभी वह सहमति से भरा हुआ था। कोई नानुकुर नहीं। कुल मिला करयात्रा मज़े में चल रही थी कि हम एक ढाबे में जा उतरे।

जाती हुई ठंड की कुहरे भरी सुबह, वैसे सुबह क्या थी, यही कोईदस बज रहे थे। उस हल्के कुहरे में गाड़ियों की आवाजाही से उड़नेवाली धूल की पर्त एक अजीब धुँधलका रच रही थी। इस धुँधलके मेंसूरज की किरणें भी कमज़ोर और शीतखाई हुई प्रतीत हो रही थीं।

भाई साहब गाड़ी से उतरते ही लघुशंका के लिए एक ओर चले गए। भाभीअपनी शॉल सम्हालती हुई मोल्डेड कुर्सी पर जा बैठीं। ड्राइवरढाबे के तंदूरीचूल्हे के मुहाने पर जा खड़ा हुआ। वह चूल्हे कीआँच में अपने हाथ सेंकने लगा। उसे हाथ सेंकता देख कर मेरी भीतीव्र इच्छा हुई कि मैं भी उसकी तरह चूल्हे के मुहाने पर जाखड़ी होऊँ लेकिन मैं जानती थी कि यह भाई साहब को कतई पसंद नहींआएगा और मैं ऐसा कोई काम नहीं करना चाहती थी जिससे इस सफ़र मेंतनाव की स्थिति उत्पन्न हो। मैं भी सिहरती, ठिठुरती ऊँगलियोंको आपस में रगड़ कर ग़रम करने का असफल प्रयास करती हुई भाभी कीबगल वाली कुर्सी पर जा बैठी। कुर्सी भी अच्छीखासी ठंडी थी।

'कुर्सी बहुत ठंडी है।'कुर्सी पर बैठते ही मेरे ठहात मुँह सेनिकला।
'बैठ जाओ, बैठने से गरमा जाएगी।'भाभी बोली।

'कुर्सी तो गरमा जाएगी लेकिन मैं ठंडी हो जाऊँगी।'मैंने फीकीहँसी हँसते हुए कहा। भाभी ने भी मेरी हँसी में साथ देना चाहालेकिन भाई साहब को अपनी ओर आते देख कर चुप रह गई। भाई साहब भीचूल्हे की ओर बढ़ लिए। तब तक ढाबे पर काम करने वाले लड़के ने चायके गिलास हमारे सामने वाली मेज पर रख दी। यद्यपि उस समय तक हमदोनों से किसी ने नहीं पूछा था कि हमें चाय पीनी है या नहीं? शायद बड़प्पन के रंग में रंगे हुए पुरुष अपनी इच्छा को दूसरे कीइच्छा साबित करके अपना अधिकार जताना पसंद करते हैं। भाई साहबने खुद ही मान लिया कि ठंड के कारण हमें चाय पीने की इच्छा होरही होगी। कुछ भी मान लेना कितना आसान होता, बजाए सच जानने के।

चाय का गिलास अभी मैंने अपने होठों से लगाया ही था कि वातावरण'काँयकाँय'की हृदयभेदी ध्वनि से भर गया। मैंने चौंक कर उसओर देखा जिधर से वह आवाज आई थी। एक छोटा, नन्हासा पिल्लाचूल्हे के बुझे हुए मुहाने से 'काँयकाँय'करता हुआ निकल रहाथा। उस पिल्ले ने मुहाने से बाहर निकलने का प्रयास किया और फिरलड़खड़ाता हुआ वापस मुहाने में घुस गया। मुहाने के भीतर से भीउसकी दर्दनाक आवाज पंचम सुर में सुनाई दे रही थी। एकबारगी ऐसालगता था मानो चूल्हा ही रो रहा हो। पल दो पल बाद वह पिल्लापुनः बाहर आ गया। इतने में लगभग उसी का हमउम्र पिल्ला भी किसीमेज के नीचे से निकल कर उसके पास जा पहुँचा। अब वे दोनोंपिल्ले हमारे कौतूहल का केंद्र बन गए। रोने वाला पिल्ला दूसरेपिल्ले से सट जाना चाहता था जिससे हम समझ गए कि वह ठंड लगने केकारण रो रहा है। लेकिन दूसरा पिल्ला शरारती किस्म का था। वह उसरोने वाले पिल्ले की टाँगपूँछ खींचने लगा तथा उसे और सतानेलगा। घबरा कर वह रोने वाला पिल्ला वापस चूल्हे के मुहाने मेंघुस गया। दूसरे पिल्ले ने चूल्हे के भीतर घुस कर उसे बाहरनिकालने का प्रयास किया लेकिन वह सफल न हो सका। वह रोने वालापिल्ला न तो मुहाने से बाहर आया और न उसने रोना बंद किया।

अब मुझे उसके रुदनस्वर से झुँझलाहट होने लगी थी। हम वहाँ कुछदेर और ठहरने वाले थे। कारण कि भाई साहब ने ढाबे वाले को आलूके पराठे बनाने का आदेश दे दिया था। हमसे इस बार भी पूछा नहींथा। मुझे खीझ होने लगी थी उनके इस बड़प्पन के थोथे प्रदर्शन से।अचानक मुझे लगा कि जब चूल्हे के एक मुहाने पर लकड़ियाँ धधक रहीहैं तो उसकी आँच और गरमाहट दूसरे मुहाने पर भी पहुँच रही होगीफिर वह पिल्ला रोए क्यों जा रहा है? वहाँ तो उसे ठंड नहीं लगनीचाहिए। बहरहाल, उस पिल्ले के रोने का कारण जानना संभव नहीं था।वह चूल्हे की गुनगुनी राख में दब कर भी रो रहा था। उसकी उस दशाको देख कर मेरे मन में अचानक एक प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि क्यादादी की गोरसी (अंगारे रखने का मिट्टी का बरतन) की राख में दबेहुए अंगारे भी क्या कभीकभार इसी तरह रोते होंगे? माना किअंगारे निर्जीव होते हैं लेकिन उनमें बसी हुई आग उनके जीवितहोने का भ्रम उत्पन्न करती रहती है। ठीक दादी की तरह।

हम दादी को ही लेने तो जा रहे थे। दो दिन पहले ही छोटे भइया नेचिट्ठी लिख कर जता दिया था कि वे अब दादी को अपने पास रखनानहीं चाहते हैं। ऐसे में एक मात्र विकल्प यही था कि दादी भाईसाहब के पास आ कर रहने लगें। भाई साहब ये चाहते तो नहीं थेलेकिन दादी को लाना उनकी विवशता बन गई थी। क्या दादी भी छोटेभइया के घर से विस्थापित होने के दुख में इस पिल्ले की भाँतिरोती होंगी? नहीं दादी इंसान हैं और इंसान अपने अधिकतर दुखचुपचाप पीता रहता है, वह खुल कर रो भी नहीं पाता है। मेरीआँखों के आगे दादी का झुर्रियों भरा चेहरा तैर गया।

छोटे भइया के घर पहुँच कर मेरी क्या भूमिका रहनी है, इसका मुझेपता नहीं था? बस, भाई साहब ने कहा कि सुमन तुम्हें भी चलना हैकानपुर और मैं उनके साथ हो ली। वैसे मुझे लग रहा था कि मुझेअपने साथ ले कर चलने के पीछे भाई साहब का उद्देश्य सिर्फ इतनाथा कि मेरी उपस्थिति में छोटे भइया या उनकी बीवी अधिक बहसबाज़ीनहीं करेंगे। कारण कि मैं उनकी सगी बहन नहीं हूँ, दूर केरिश्ते की बहन हूँ। रिश्तों के समीकरण भी कितने विचित्र होतेहैं। स्वार्थ के लिए दूर के रिश्ते निकट में बदल जाते हैं औरनिकट के रिश्ते दूर होते चले जाते हैं। दादी इन दोनों भाइयोंकी सगी दादी है लेकिन दोनों बोझ मानते हैं उन्हें और एकअनचाही, पुराने कपड़ों की गठरी की तरह अपनी पीठ से उतार करदूसरे की पीठ पर लादने की फिराक में रहते हैं। क्या दादी नेअपनी जवानी में अपने बुढ़ापे के बारे में कभी ऐसा सोचाहोगा? नहीं, कोई नहीं सोचता है। सोच भी कैसे सकता है कि उनकेअपने रक्त-संबंधी एक दिन उन्हें पुराने कपड़ों की गठरी समझनेलगेंगे।

पुराने कपड़ों से छुटकारा पाना कितना सुखद होता है अगर उनकेबदले स्टील का कोई सस्तासा बर्तन, प्लास्टिक का सामान या ऐसाही कोई फालतू सामान मिल जाए। जाने कितने लोग अपने कान खड़े किएरहते हैं बर्तन या सामान के बदले रद्दी कपड़े लेने वालों कीआवाज की प्रतीक्षा में।

अब तो वृद्धाश्रम का भी अच्छाखासा चलन बढ़ गया है, एक दिन भाईसाहब किसी से चर्चा कर रहे थे। शायद भाई साहब के मन के किसीकोने में यह बात उमड़तीघुमड़ती होगी कि दादी जैसी रद्दी कपड़ोंकी गठरी को वृद्धाश्रम में सौंप कर जीवन का दायित्वहीन पलहासिल किया जा सकता है। मगर, भाई साहब का दुर्भाग्य कि सागरअभी इतना प्रगतिवान शहर नहीं बना है जहाँ वे दादी कोवृद्धाश्रम के हवाले कर के चैन से रह सकें। मोहल्ले, पड़ोस, परिचित सब के सब टोकेंगे। अच्छीखासी भद्द उड़ेगी। अतः दादी कोअपने साथ ही रखना होगा, हर हाल में। यह विवशता उनके हर हावभावमें परिलक्षित हो रही थी। शायद यही कारण था कि वे बातबात मेंचिड़चिड़ा रहे थे। बारबार असहज हो उठते थे। ऐसा माना जाता है किघर की बहुएँ अपने घर में वृद्धाओं को पसंद नहीं करती हैं। वेउन्हें स्वतंत्रता में बाधा मानती हैं। क्या भाभी भी ऐसा मानतीहैं?

  'भाभी, अब तो दादी आपके साथ ही रहेंगी। आपको परेशानी होगी न?'मैंने भाभी से पूछ ही लिया।

'उनके रहने से परेशानी कैसी, सुमन? घर में कोई बड़ाबूढ़ा रहे तोअच्छा ही लगता है।'भाभी ने उत्तर दिया।

'लेकिन छोटी भाभी तो ऐसा नहीं मानती हैं, तभी तो वे दादी कोअपने साथ नहीं रखना चाह रही है।'मैंने कहा।

'छोटी को जो मानना हो माने, मैं तो ऐसा नहीं मानती हूँ।'भाभीबोलीं।

'और भाई साहब?'मैंने पूछा।

'उनकी वे जानें। वे चाहे दुत्कारें चाहे प्यार करें, उनका सबचलेगा। जो मैं कुछ कहूँगी तो चार बातें होने लगेंगी।'भाभी नेउसाँस भरते हुए कहा।
'ओह, तो ये बात है, भाभी के मन में दादी के लिए प्यार नहींबल्कि चार बातों का डर है जो भाभी को मौन रखे हुए है। वैसेउनकी बात अपनी जगह ठीक भी है, जब दादी के सगे पोते को उनकी ललकनहीं है तो पराए घर से आई पोतोहू कहाँ से जगाएगी ललक।'

अपने मन में उमड़तेघुमड़ते विचारों से जूझते हुए मैंने कब पराठाखा लिया, मुझे पता ही नहीं चला। पराठे के स्वाद का अहसास भीनहीं हुआ। बस, इसी तरह आगे का रास्ता भी तय हो गया। ढाबे सेकानपुर तक के रास्ते के बीच जिस चीज ने मेरा ध्यान आकर्षितकिया वह था, सड़क के दोनों किनारों में लगे पेड़ और पेड़ों के साथनहरनुमा जमीन में सहेजा गया पानी।

'ये पेड़ तो हमेशा पानी में डूबे रहते हैं, इससे इनकी जड़ों कोनुकसान नहीं पहुँचता?'मैंने भाई साहब से पूछा।

'नहीं, इस पानी के कारण ही तो इन पेड़ों में आम की अच्छी फसलआती है।'उत्तर ड्राइवर ने दिया।

ड्राइवर का उत्तर सुन कर मेरा ध्यान गया कि वे पेड़ आम के थे।पेड़ों के परे सड़क के दोनों ओर हरियाले खेत बिछे हुए थे। सारादृश्य अत्यंत सुरम्य था। मगर हम तीनों के मन का उद्वेलन उसदृश्य को आत्मसात करने में आड़े आ रहा था।

शाम से कुछ पहले हमने कानपुर के औद्योगिक क्षेत्र में प्रवेशकिया। कारखानों के घनीभूत प्रदूषण ने हमारा ऐसा स्वागत किया किमुझे उबकाई आने लगी और भाभी को खाँसी के ठसके लगने लगे। मैंनेगाड़ी से बाहर झाँक कर देखा। सड़क पर गुजरते लोगों या दूकान परसामान ख़रीदतेबेचते लोगों के लिए सबकुछ सामान्य था। पापी पेटकितनी आसानी से समझौता करवा देता है हर परिस्थिति से, यह मुझेदिखाई दे रहा था। आम आदमी में पर्यावरण के प्रति चेतना की बातकरना तो अपने देश में महज नारेबाजी जैसा लगता है। हमारीसंवेदनाएँ हमारे स्वार्थ के इर्दगिर्द रहती है। हम अपने घर काकूड़ाकचरा दूसरे के घर के दरवाज़े पर फेंक कर अपनी सफ़ाई की आदतपर नाज कर लेते हैं। फिर कूड़ा फेंकतेफेंकते इंसानों को भीफेंकने लगते हैं, इस चौखट से उस चौखट। छोटे भइया यही तो करनेजा रहे हैं। पहले भाई साहब एक बार यह कर चुके हैं।

छोटे भइया के घर पहुँचते ही दादी ने मुझे अपने गले से लगालिया। मेरा मन भर आया। उनकी कमज़ोर कलाइयों में स्नेह कीअपरिमित ऊर्जा प्रवाहित हो रही थी। इस ऊर्जा को कैसे महसूसनहीं कर पाते हैं ये लोग? मुझे आश्चर्य हुआ। दादी ने भाई साहबऔर भाभी को भी अपने गले से लगाया। 'जुगजुग जीयो'का आशीर्वाददिया। शायद, यह मेरा भ्रम था कि मुझे उनका यह अंदाज फ़कीरानालगा जो दे उसका भला, जो न दे उसका भी भला, फ़कीरों औरबुजुर्गों में शायद कोई अंतर नहीं रह जाता है। अंतर होता भीहै, होगा तो सिर्फ इतना कि फ़कीर अपनी चिंता छोड़ कर इस फ़ानीदुनिया के लिए दुआ करते हैं और बुजुर्ग अपनी चिंता छोड़ कर अपनेवंशजों के लिए दुआ करते हैं। दुआएँ सिर्फ दुसरों के लिए, अपनेलिए एक भी नहीं।

रात्रि भोजन के बाद बैठक जमीं।

'दादी के सारे कपड़े मैंने इस सूटकेस में रख दिए हैं और उनकीथाली, लोटा वगैरह इस डलिया में है।'छोटी भाभी ने चर्चा कीशुरुआत करते हुए कहा।
'थाली, लोटा क्या करना है? क्या दादी को खिलाने के लिए मेरेमें घर में बरतन नहीं है?'भाई साहब ने भृकुटी तानते हुए व्यंग्यसे कहा।

'आप के पास तो सब कुछ है भाई साहब, बस, इसीलिए तो दादी को आपकेसाथ भेज रहे हैं।'अबकी बार छोटे भइया ने मुँह खोला।
'हाँहाँ, क्यों नहीं, मेरे घर तो रुपयों का पेड़ लगा हुआ है।'भाई साहब अपनी तल्खी छुपा नहीं पा रहे थे।

'मेरे लिए रुपये क्या करने हैं बेटा, मुझे तो बस, एक जून एकरोटी दे दिया करना तो भी मेरा काम चल जाएगा। अब बचे ही कितनेदिन हैं,'दादी ने हस्तक्षेप करते हुए कहा। उनकी आवाज में कुछऐसा भाव था, मानो उन्हें अपने जीवित रहने पर लज्जा आ रही हो।दादी की निरीह स्थिति ने मुझे बौखलाहट से भर दिया।

'दादी को मैं अपने साथ रख लूँ तो?'मैं बोल पड़ी।
दोनों भाई चौंके। भाभियाँ भी। दूसरे ही पल उनके चेहरों परआपत्ति के भाव तिर गए।

'कुछ दिनों के लिए।'मैंने तत्काल इतना और जोड़ दिया।
'देखेंगे।'भाई साहब बोले।

'दादी मेरे साथ कभी नहीं रही हैं, उन्हें अच्छा लगेगा, और मुझेभी।'मैंने एक तर्क और सामने रख दिया।

'ठीक है, अगर तुम यही चाहती हो तो...'भाई साहब ने अनमने स्वरमें कहा लेकिन उनके उसी स्वर में कहीं बोझ हटने की खुशी का भावभी झलक रहा था। अब, इस समय उन्हें अपने पुरुषत्वपूर्ण बड़प्पनकी भी कोई चिंता नहीं थी।

'सोच लो सुमन, दादी को रखना आसान नहीं है। मैं ही जानती हूँ किकैसे मैंने सम्हाला है इन्हें।'छोटी भाभी को मेरा प्रस्तावपसंद नहीं आया था। आता भी कैसे? वे तो अपनी पीठ का बोझ उतार करभाई साहब और भाभी की पीठ पर लाद कर खुश होना चाहती थीं। मेरेप्रस्ताव ने उनकी उस संभावित खुशी को छीन लिया था। लेकिन मुझेन तो उनके दुखसुख की चिंता थी और न भाई साहब की। मुझे चिंताथी तो सिर्फ दादी के अस्तित्व की। मैं उन्हें पुराने, रद्दीकपड़ों की गठरी की तरह उपेक्षित नहीं रहने देना चाह रही थी, चाहे मुझे कोई भी कठिनाई क्यों न झेलनी पड़े।

दादी को लेकर हम लोग सागर लौट आए। जैसी कि मुझे आशा थी, भाईसाहब ने गाड़ी की दिशा पहले मेरे घर की ओर मोड़ दी। उन्होंनेमुझे और दादी को सामान सहित उतारा और फिर चैन की साँस लेते हुएअपने घर चले गए। सहमीसिकुड़ी दादी मेरे घर की बैठक में रखेसोफे के एक कोने में बैठ गईं।

'बोलो दादी, क्या खाओगी?'मैंने दादी का हाथ अपने हाथ में लेतेहुए पूछा। मेरे पूछते ही मैंने महसूस किया कि दादी का हाथकाँपा और फिर उन्होंने अपने शरीर को ढीला छोड़ दिया। कई दिनों, महीनों और शायद वर्षों की घुटन उनकीमुरझाईपलकों के नीचे से बह निकली।

'अब आप कहीं नहीं जाओगी, दादी, हमेशा यहीं रहोगी, मेरे पास।'मैंने अपने मन का रहस्य खोलते हुए कह डाला। दादी ने एक बार फिरमुझे अपने सीने से लगा लिया। वह पुराने कपड़ों की गठरी मानोसलमेसितारे टंके नयेताज़ा कपड़ों में बदल गई। मुझे अपना घरअच्छाअच्छा सा 

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