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डॉ शरद सिंह ने 'पिछले पन्ने की औरतें'उपन्यास में.... | बुंदेली महिला कथाकार और लोक संस्कृति | डॉ. अवधेश चंसौलिया

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Dr (Miss) Sharad Singh, Novelist, Columnist, Historian & Poetess

 ★डा0 शरद सिंह ने पिछले पन्ने की औरतें उपन्यास में चंदेरी (गुना) में लगने वाले बेड़नियों के मेले में ‘राई नृत्य’ का सुंदर चित्रण किया है-‘‘मशाल के इर्द-गिर्द पचासों दलों के रूप में सैकड़ों पुरुषों की भीड़ और उन दलों के मध्य पूरी सज-धज के साथ पचासों बेड़नियां...। रंग पंचमी की रात को ग्राम करीला में बेड़नियों का विराट मेला लगता है। समूची पहाड़ी बेड़नियों और उनके सोहबतियों के नाच रंग से नहा जाती है।’’ ★
....प्रस्तुत लेख से...

यह लेख  "बुंदेली महिला कथाकार और लोक संस्कृति"  "स्पंदन"में 17सितम्बर 2009 को प्रकाशित किया गया था ...इसके लेखक हैं डॉ. अवधेश चंसौलिया। इसमें मेरे उपन्यास का भी उल्लेख है अतः साभार यह लेख मूल लिंक सहित अपने इस ब्लॉग पर प्रस्तुत कर रही हूं-
Spandan Magazine

बुंदेली महिला कथाकार और लोक संस्कृति
- डॉ. अवधेश चंसौलिया
       बुंदेली माटी में जन्मी महिला कथाकार आज भले ही बुन्देलखण्ड से दूर अपनी रचनाधर्मिता में संलग्न हांे लेकिन उनके संस्कारों में, उनके मन में, रोम-रोम में बुन्देली जन-जीवन रचा-बसा है। यही कारण है कि जन्म से मरण तक के संस्कारों, रीतिरिवाजों एवं यहाँ के तीज त्यौहारों का जीवंत चित्रण इनके कथा साहित्य में सहजता से प्राप्त हो जाता है। बुंदेली महिला कथाकारों में मैत्रेयी पुष्पा का नाम सर्वोपरि है। मैत्रेयी जी ने बुदेली समाज को बहुत नजदीकी से देखा-परखा है। इसलिए इनके कथा साहित्य में बुंदेली जन-जीवन पूरी सूक्ष्मता, गहन आत्मीयता के साथ रूपायित हुआ है। बुंदेलखण्ड ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत में पुत्री की अपेक्षा पुत्र जन्म पर लोगों को अधिक प्रसन्नता होती है। पुत्र जन्म पर दिल खोलकर खर्च किया जाता है, नेग बाँटे जाते हैं, जबकि पुत्री जन्म पर लोग जन्म संस्कार से जुड़ी दाई का मेहनताना देने में भी संकोच करते हैं। ऐसी स्थिति में दाई, पुत्र-पुत्री में भेद न करती हुई सोहर गाती है -
‘‘जसोदा जी से हँस-हँस पूंछत दाई,
नंदरानी जी से हँस-हँस पूंछत दाई,
रातैं तो मैं लली जनाय गयी,
लालन कहाँ से लाई। जसोदा जी से....।’’ 1
रूढ़ियों से ग्रस्त बंदेली समाज में पुत्र को जन्म देने वाली माता को जो सम्मान प्राप्त है, वह पुत्री जन्मने वाली माता को नहीं है। तुम किसकी हो बिन्नी कहानी में पुत्री की माँ की मानसिक संघर्ष की स्थिति दृष्टव्य है-‘‘बिना पुत्र की जननी बने, वे माँ के गौरवान्वित पद को स्वीकार नहीं कर पा रहीं थी।...अधूरेपन का एहसास मकड़ी के जाले सा मन पर चारों ओर लिपट गया। सामाजिक परिवेश कटीला सा हो चला। तीज त्यौहार चिढ़ाते-बिराते से निकलने लगे। कलेजे में हीनता की हूक सी उठती, तो बेचारगी में पलट जाती.....यह एक बात उनके कलेजे को निरंतर उधेड़ती रहती कि-वे बेटे को जन्म नहीं दे सकी।’’ 2
पुत्र जन्म की प्रसन्न्ता अवर्णनीय होती है। ‘‘चाची आ गयीं। गोमा ने बालक को जनम दिया है। चाची थाली बजाने लगीं.....घर-घर बुलावे दिये जा रहे हैं। चैक पूरकर सांतियां घरे जायेंगे। चाची कोरा चरुआ भर रहीं हैं। बत्तीसा डालकर उबालने धरेगीं। गोमा को बत्तीसा का पानी पीना है। नेग सगुन हो रहे हें।....सोहर गाये जा रहे हैं-
ऐसे फूले सालिग राम डोलें, हाथ लिये रुपइया,
ए लाला के बाबा, आज बधाई बाजी त्यारे।।’’ 3
मैत्रेयी पुष्पा के अल्मा कबूतरी में बच्चे की छठी संस्कार का चित्रण यथार्थपरक है। ‘कदमबाई कबूतरी ने बेटे को जन्म दिया है। कबूतरे के डेरों पर गाँव के पंडित जी तो आते नहीं अतः पंडिताई का कार्य मलियाकाका ही करते हैं। बच्चे का पालना बाहर निकाला गया। चैक जगमगाने लगा। सरमन की औरत देवर को गालियाँ देकर, हल्की हो चुकी थी, सो सोहर गाने लगी। आधा गज नया कपड़ा भी ले आयी। कुर्ता टोपी के लिए।' 4
मैत्रेयी पुष्पा के कथा संसार में सामाजिक रीति-रिवाजों का जैसा विशद और सुन्दर चित्रण है वैसा अन्य किसी बुन्देली कथालेखिका के कथा लेखन में नहीं है। इस दृष्टि से उनके उपन्यास इदन्नमम्, बेतवा बहती रही, अल्मा कबूतरी, झूला नट तथा कहानी संग्रह ललमनिया तथा अन्य कहानियाँ अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। कहानी ललमनिया तो बारात चित्रण का विहंगम एवं मनमोहन दृश्य उपस्थित करने में बेजोड़ है। इदन्नमम् उपन्यास में ‘नव वधू की रोटी छुआई’ का दृश्य इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। जिसमें बुढ़िया, जब पुराना नाम ले लेकर नव वधू को बुलाती हैं तो वह कमरे से बाहर नहीं निकलती। लेकिन जैसे ही मंदा, बहू को नर्मदा नाम से पुकारती है तो वह झट से बाहर निकल आती है और उसका नाम ससुराल में नर्मदा पड़ जाता है। मैत्रेयी जी के कथा साहित्य में बुन्देली वाद्य यंत्रों को भी यथास्थान महत्व प्राप्त हुआ है। मंगल अवसरों पर यहाँ रमतूला बजाया जाता है। ‘मन्दाकिनी की पक्यात में रमतूला बजा टू ऊं टू ऊं बुलउवा दिये गये। कुसुमा का स्वर मंगल गीतों में सबसे ऊपर है।
‘‘सिया बारी बनरी, रघुनन्दन बनरे।
को को बरातें जाय मोरो लाल।।’ 5
बुन्देलखण्ड में जब नववधू आती है तब उसकी गोद में छोटे देवर को बिठाया जाता है। इस रस्म का सजीव चित्रण मैत्रेयी पुष्पा झूला नट उपन्यास में विस्तार से करती हैं।
मैत्रेयी पुष्पा के लोक कवि ईसुरी पर आधारित उपन्यास कही ईसुरी फाग में बुंदेली लोक-संस्कृति में रची-बसी फागों के अनेक दृश्य जीवंत हो उठे हैं। मैत्रेयी जी के कथा साहित्य में नौटंकी, रास, राई नृत्य, सुअटा खेल आदि लोक नृत्यों का दृश्यांकन बहुत ही आकर्षक रूप में हुआ है। ‘नारे सुअटा’ बुंदेली क्वांरी कन्याओं का एक महत्वपूर्ण पर्व है। अगनपाखी उपन्यास में क्वार के महीने में इस पर्व की मनोरम झाँकी प्रस्तुत हुई है। क्वांरी कन्याओं के द्वारा सुअटा की मूर्ति के सामने पूजा-अर्चना कर प्रभाती गाये जाने का दृश्य इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है -
‘‘उठो सूरजमल भैया भोर भये
उठो-उठो चन्दुमल भइया भोर भये
नारे सुअटा, मालिनी खड़ी तेरे द्वार
इन्दरगढ़ की, मालिनी नारे सुअटा, हाटा ई हाअ बिकाय।’’ 6
इन्हीं के उपन्यास इदन्नमम् में बुंदेली लोकनृत्य दिवारी का मनोहारी चित्रण बरबस ही लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच लेता है-
‘‘दिबरिया लोग, गाते हुए नाचते हैं। होऽऽ! होऽऽ! होऽऽ! होऽऽऽऽ!
दिबारी माय लक्ष्मी माय। हो मोरे गनपत महाराजऽऽऽज!
नाच जमने लगा। मोर पंख हिल रहे हैं। लोग डूबे हुए हैं रेग में। एक दिबरिया भागता हुआ आया और जा मिला समूह में.....बऊ थाली में खील बतासा गुड़ धरकर ले आयीं।’’ 7
मैत्रेयी पुष्पा के अतिरिक्त अन्य लेखिकाओं ने भी अपने साहित्य में बुंदेली रीति-रिवाजों, परम्पराओं को उकेरा है। डा0 छाया श्रीवास्तव की कहानी असगुनी में भी पुत्र जन्म पर खुशी में सोहर गाते हुए स्त्रियों के मनमोहक दृश्य हैं। ननद के कहने पर छोटी भाभी गाती है-‘‘हमको तो पीर आवें, ननद हँसत डोलें।’’ 8
डा0 कामिनी ने गुलदस्ता कहानी में सातवें महीने के गर्भ के समय लड़की के मायके से आने वाले पच की बात इस प्रकार की ‘बिटिया के अगर लड़का हुआ तो पच के लिए दो धोती, अच्छा ब्लाउज, बच्चे को कपड़े, दामाद को कुर्ता-धोती चाहिए। मिठाईयाँ, गेहूँ, दालें, चावल अलग। सोने की नहीं तो चाँदी की हाथ की पुतरिया, तबिजिया चाहिए। गिरिजा को तीन-तीन बिछिया नहीं तो गाँव वाले नाम धरेंगे। कोई क्या कहेगा कि घर में जुआरा बंधा है। खेती भी है और कुछ न भेजा।’’ 9
सामाजिक रीति-रिवाजों की विस्तृत और यथार्थपरक जानकारी होने के कारण लेखिकाओं के चित्रण अधिक सजीव और यथार्थ बन पड़े हैं। डा0 छाया श्रीवास्तव कहानी विकल्प में लड़की देखने का दृश्य इस प्रकार उपस्थित करती हैं-‘‘कानपुर के सब-इंजीनियर आये थे, दलबल सहित माँ, दो बहिनें, एक भाई के साथ। पिता ने आदर सत्कार में कमी नहीं रखी थी। लड़के ने भांति-भांति से इंटरव्यू लिया था। बहिनों ने तो नचाकर देखा था। पूरे दो दिन में वे महीनों का हिसाब बिगाड़ गये थे।’’ 10 जीवन पथ कहानी में भी छाया श्रीवास्तव ने वर-वधू के विवाह की रस्म के सुन्दर चित्रांकन के साथ बेटी की विदाई का बहुत ही कारुणिक दृश्य उपस्थित कर पाठकों को द्रवित करने में पूर्ण सफलता प्राप्त की है।’’ 11
डा0 पद्मा शर्मा ने रेत का घरोंदा कहानी में वधू के ससुराल आने पर कंकन खोलने के रिवाज का बड़ा ही मनोरंजक चित्र उपस्थित किया है। इसी कहानी में ससुराल में नई वधू से गाना गाने को कहा जाता है, इस प्रथा को दादरे गाने की रस्म कहा जाता है। नई वधू के समक्ष यह बहुत ही दुविधा की घड़ी होती है। वह सोचती है क्या गाऊँ क्या न गाऊँ। कहानी की नव वधू स्मिता ढोलक पर थाप देकर गा उठती है-
‘‘राजा की ऊँची अटरिया, दइया मर गई, मर गई
सासू कहे बहू रोटी कर लो, सब्जी कर लो,
राजा कहे मेरी रामकली की उंगली जल गई।’’ 12
विवाह में मामा द्वारा भात लाने की परम्परा बुन्देली समाज में बहुत महत्व रखती है। इस अवसर पर मामा अपनी सामथ्र्य के अनुसार सामान आदि की व्यवस्था करते हैं। भतैयों के स्वागत में बहिनें गाती हैं-
‘‘सुनो भैया करूँ विनती समय पर भात दे जाना।
ससुर को सूट सिलवाना, सास को साड़ी ले आना।
अगर इतना न हो भैया तो खाली हाथ आ जाना।
मण्डप की शोभा रख जाना।।’’ 13
बुंदेली महिला कथाकारों ने बुंदेली संस्कृति का अपने कथा साहित्य में जिस गहराई के साथ संरक्षण किया है, संस्कृति के प्रति वैसा समर्पण भाव, पुरुष कथा लेखन में लगभग अप्राप्त है। मेले, दंगल, पर्वों, त्यौहारों की विशेष सजधज तथा ग्रामीण संस्कृति की झलक पूरी तन्मयता और तीव्रता के साथ हमें महिला कथाकारों के कथा साहित्य में दृष्टिगत होती है। करवाचैथ भारतीय नारियों का विशेष पर्व है। इसका चित्राकन रजनी सक्सेना ने अपनी कहानी अन्तर संवाद में बहुत ही अच्छी तरह से किया है। इसी कहानी में शारदीय नवरात्रि का दृश्य भी अवलोकनीय है। 
Pichhale Panne Ki Auraten | Novel of Dr (Miss) Sharad Singh

डा0 शरद सिंह ने पिछले पन्ने की औरतें उपन्यास में चंदेरी (गुना) में लगने वाले बेड़नियों के मेले में ‘राई नृत्य’ का सुंदर चित्रण किया है-‘‘मशाल के इर्द-गिर्द पचासों दलों के रूप में सैकड़ों पुरुषों की भीड़ और उन दलों के मध्य पूरी सज-धज के साथ पचासों बेड़नियां...। रंग पंचमी की रात को ग्राम करीला में बेड़नियों का विराट मेला लगता है। समूची पहाड़ी बेड़नियों और उनके सोहबतियों के नाच रंग से नहा जाती है।’’ 14
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि बुंदेली महिला कथाकार बुंदेली संस्कृति के लुप्त होते स्वरूप को पुनर्जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रही है। उनका कथा लेखन सोउद्देश्य है और वे इसमें पूरी तरह सफल भी हो रही हैं। महिलाएँ सचमुच लोक संस्कृति की सच्ची वाहिकाएँ हैं। लोक संस्कृति के संरक्षण में बुंदेली महिला कथाकारों के इस योगदान को निरंतरता मिलनी चाहिए।
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संदर्भ-
1. मैत्रेयी पुष्पा-रिजक, ललमनिया तथा अन्य कहानियाँ (कहानी संग्रह) पृ0 18
2. वही पृ0 126
3. मैत्रेयी पुष्पा-गोमा हंसती है, ललमनिया तथा अन्य कहानियाँ(कहानी संग्रह) पृ0 167-168
4. मैत्रेयी पुष्पा-अल्मा कबूतरी पृ0 34 राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, 2004
5. मैत्रेयी पुष्पा-इदन्नमम पृ0 106, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली 1999
6. मैत्रेयी पुष्पा, अगनपाखी, पृ0 24-25, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली 2003
7. वही पृ0 312
8. डा0 छाया श्रीवास्तव-असगुनी, आकांक्षी (कहानी संग्रह) पृ0 40, राजीव प्रकाशन, टीकमगढ़, 1997-98
9. डा0 कामिनी-गुलदस्ता पृ0 46 आराधना ब्रदर्स, गोविन्द नगर, कानपुर 1991
10. डा0 छाया श्रीवास्तव-विकल्प, आकांक्षी (कहानी संग्रह) पृ0 60
11. डा0 छाया श्रीवास्तव-परित्यक्ता पृ0 8 अमन प्रकाशन 1/20, महरौली दिल्ली 1981
12. वही पृ0 32
13. वही पृ0 105-106
14. डा0 शरद सिंह, पिछले पन्ने की औरतें, पृ0 278 सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली,2005
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