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देशबन्धु के साठ साल- 13- ललित सुरजन

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Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की लेखमाला की  तेरहवीं कड़ी....

देशबन्धु के साठ साल- 13
- ललित सुरजन
दीपावली  विशेषांक का प्रकाशन  हमारे लिए एक रोमांचक सालाना अनुभव हुआ करता था।
Lalit Surjan
गहमागहमी और भागदौड़ से भरपूर। दशहरे के अगले दिन काम शुरू कर धनतेरस के दिन विशेषांक की पार्सलें दूर-दूर के केंद्रों तक रवाना करने के बाद जब घर लौटते थे तो थकान से चूर होते थे। लेकिन जब उस विशेषांक की पाठकों  और  खासकर साहित्यकारों के बीच चर्चा होती थी और प्रशंसा में पत्र मिलने लगते थे तो मन उत्फुल्ल हो जाता था।  विशेषांक निकालने का मेरा अपना पहला अनुभव 1963 का था, जब बाबूजी ने नई दुनिया, जबलपुर (अब नवीन दुनिया) छोड़कर सांध्य दैनिक 'जबलपुर समाचार' (अब देशबन्धु, जबलपुर) का प्रकाशन शुरू किया था। प्रदेश के जाने-माने (और नए भी) लेखकों की रचनाएं कई हफ्ते पहले से आने लगी थीं। उन्हें संभालने, चयन करने, क्रम निर्धारण करने, धीमी गति की पुरानी पद्धति से उनकी कंपोजिंग, प्रूफ रीडिंग, पेज मेकअप, रेखाचित्रों का चयन, वैसी ही धीमी गति की ट्रेडल मशीन पर छपाई, मुखपृष्ठ का चयन और छपाई, अंक की जिल्दसाजी, बस और रेल से पार्सल रवानगी: इस पूरी प्रक्रिया में पंद्रह दिन लग गए। मेरे सहयोगी राजेंद्र अग्रवाल और मैं दो हफ्ते घर नहीं गए। जबलपुर के कमानिया गेट के पास नित्यगोपाल तिवारी के चलचित्र प्रेस में ही हमारा डेरा जमा रहा। थक जाने पर न्यूजप्रिंट की थप्पियों पर पैर फैलाकर थोड़ी नींद ले लेते थे।


मध्यप्रदेश-विदर्भ के समाचारपत्रों में एक लंबे समय तक दीपावली विशेषांक की परंपरा कायम रही जो शायद 1990-91 के आसपास जाकर टूटी। बांग्ला में पूजा के अवसर पर पत्रों के विशेषांक निकलते थे और मराठी में दीपावली पर कुछेक पत्र तो मात्र वार्षिक अंक ही प्रकाशित करते थे। याद आता है कि लोकप्रिय चित्रकार रघुनाथ मुलगांवकर एक ऐसा सालाना अंक निकालते थे, जिसकी मराठी भाषी पाठकों में अच्छी ख्याति थी। ''किर्लोस्कर''पत्रिका का विशेषांक भी चाव से खरीदा और पढ़ा जाता था। बांग्ला में देश, आनंद इत्यादि पत्रों के पूजा विशेषांक को लेकर तो काफी किंवदंतियां  प्रचलित थीं। मसलन, जिस लोकप्रिय लेखक से उपन्यास लिखवाना है, उसे एक माह के लिए होटल के कमरे में ही कैद कर दो। जब पूरा लिख लें तब कैद से रिहाई! देशबन्धु और तब की नई दुनिया के विशेषांकों की प्रतीक्षा इसलिए होती थी, क्योंकि लेखकों-कलाकारों के साथ हमारी स्वाभाविक मैत्री थी और वे प्रसन्नतापूर्वक अपनी उत्तम ताजा रचनाएं विशेषांक के लिए देते थे। हमारे पाठकवर्ग की रुझान भी सदा से सुरुचिपूर्ण साहित्य की ओर रही है।


देशबन्धु (नई दुनिया, रायपुर) के दीपावली विशेषांक की सामग्री का चयन रायपुर में होता था, लेकिन छपाई के लिए सामग्री इंदौर भेजते थे। 1964 में बाबूजी ने मुझे इंदौर भेजा, जहां मैंने लाभचंदजी छजलानी (उन्हें भी बाबूजी कहते थे) के घर पर रहकर तथा उनके और अब्बूजी (अभय छजलानी) के सान्निध्य में प्रेस से संबंधित बहुत सी बातें उन पंद्रह दिनों में सीखीं। फिर दीपावली विशेषांक के ढेर सारे बंडल इंदौर-बिलासपुर एक्सप्रेस की ब्रेकवान में लदान कर उसी टे्रन से वापिस लौटा जहां उत्सुकता के साथ विशेषांक की प्रतीक्षा हो रही थी। उस साल मुखपृष्ठ पर पंडित नेहरू का चित्र था, जो सुप्रसिद्ध चित्रकार विष्णु चिंचालकर ने बनाया था। उसी अंक में या शायद अगले साल सिने जगत के जाने-माने कला निदेशक माधव आचरेकर का एक लेख ताजमहल पर था। इस लेख में उन्होंने अत्यन्त रोचक ढंग से ताजमहल के स्थापत्य की तकनीकी खूबियां समझाईं थीं कि ताज यदि विश्व की सर्वाधिक मनोहारी इमारत है तो उसके क्या कारण हैं।


 यह उन दिनों की बात है जब अविभाजित मध्यप्रदेश में द्विवेदी युग से लेकर मुक्तिबोध मंडली तक के अनेक वरेण्य लेखकों की उपस्थिति प्रदेश के साहित्यिक परिदृश्य पर थी। इनमें से लगभग हरेक के साथ बाबूजी के आत्मीय संबंध थे। उनके लिए देशबन्धु अपना ही अखबार था और हमें भी मानों उन पर मनमानी करने का अधिकार प्राप्त था। दीपावली विशेषांक के लिए छह-आठ हफ्ते पहले पत्र भेजा जाता और समय पर उनकी रचना हमें प्राप्त हो जाती। याददिहानी की आवश्यकता नहीं पड़ती। इन रचनाओं को लेखकों के ज्येष्ठता क्रम में विशेषांक में संजोया जाता। मुकुटधर पांडेय, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, रामानुजलाल श्रीवास्तव, भवानीप्रसाद तिवारी, नर्मदाप्रसाद खरे, शैलेंद्र कुमार (नागपुर), ज्वालाप्रसाद ज्योतिषी, पदमा पटरथ, कोमलसिंह सोलंकी, शशि तिवारी, कृष्ण किशोर श्रीवास्तव, प्रमोद वर्मा, हनुमान वर्मा इत्यादि की रचनाएं लगभग इसी क्रम में जमाई जाती थीं। इसी में आगे छत्तीसगढ़ और महाकौशल प्रदेश के अन्य चर्चित लेखकों की रचनाएं ली जातीं।  इनके अलावा दो स्थायी स्तंभ होते। पहला- सालभर के वैश्विक घटनाचक्र पर विशेष संपादकीय जिसे पंडितजी, बाद के वर्षों में बसंत कुमार तिवारी लिखते थे। दूसरा- पृथ्वीधराचार्य कृत वार्षिक भविष्यफल जो बेहद लोकप्रिय था। यह दीपावली विशेषांक हमारी पूर्व घोषणा के अनुसार ''संग्रहणीय''होता था। अनेक पाठक बरसों तक विशेषांकों की प्रतियां अपने निजी पुस्तकालय में संभालकर रखते थे।


दीपावली विशेषांक का प्रकाशन मूलत: एक साहित्यिक उपक्रम था, लेकिन वह व्यवसायिक दृष्टि से भी लाभप्रद था। एक तो अखबार की चर्चा प्रबुद्ध वर्ग के बीच होती, जिससे वर्तमान मार्केटिंग मुहावरे में कहें तो  ''ब्रांड इक्विटी''में इजाफा होता। दूसरे पत्र को प्रतिमाह औसतन जो विज्ञापन आय होती थी, उससे दुगनी से अधिक आय इस एक माह में हो जाती थी। याने बारह महीने में तेरह या चौदह माह की कमाई। इस अतिरिक्त आमदनी से बहुत से रुके हुए काम पूरे होते। कुछ कर्जे चुकाए जाते तो नए कर्ज लेने का रास्ता भी खुलता। विज्ञापन लेने के बहाने प्रदेश के वाणिज्यिक क्षेत्र के अनेक जनों से मुलाकात ताजा हो जाती। जो विज्ञापन देते, उनमें से अधिकतर निजी संबंधों के आधार पर ही सहयोग करते थे। कुछ के मन यह भावना होती थी कि अपने अखबार की मदद कर रहे हैं तो कुछ की निगाह भविष्य में मौका पड़ने पर अखबार का साथ मिलने की संभावना पर टिकी होती थी। विज्ञापन जुटाने में विज्ञापन विभाग की भूमिका सीमित होती थी। संपादकीय सहयोगी और विभिन्न स्थानों के संवाददाताओं के भरोसे ही काम मुख्यत: होता था। वे इसके लिए एक निर्धारित कमीशन के पात्र होते और यह उनकी अतिरिक्त आय का जरिया होता। महानगरों के पत्रों में अथवा पूंजीपति घरानों द्वारा संचालित अखबारों में कार्यरत पत्रकार नहीं समझ पाते कि पत्रकारों को विज्ञापन जुटाने क्यों जाना चाहिए। वे इस कारण से देशबन्धु जैसे अखबारों को शंका की दृष्टि से देखते हैं और उनकी आलोचना भी करते हैं। उन्हें यह पता नहीं होता कि सीमित साधनों में स्वतंत्र रूप से अखबार निकालना कितना दुष्कर कार्य है। दरअसल, उनकी और हमारी दुनिया बिलकुल अलग है।


खैर, यह अलग से विचार करने का विषय है। रायपुर, दुर्ग, राजनांदगांव आदि औद्योगिक व्यवसायिक गतिविधियों वाले केंद्रों से स्वाभाविक ही आशा के अनुरूप विज्ञापन मिल जाते थे। कई जगह पर संवाददाताओं के निजी संपर्कों के कारण लाभ मिलता। कुछेक स्थानों पर संभावना होने के बावजूद निराशा हाथ लगती, क्योंकि स्थानीय संवाददाता इस दृष्टि से कमजोर होते थे। दीपावली विशेषांक के अलावा 26 जनवरी व 15 अगस्त को प्रकाशित विशेष परिशिष्ट भी पठनीय सामग्री के कारण संग्रहणीय होते तो दूसरी ओर उनसे भी विज्ञापन लाभ होता था। 1966 की दीवाली के पहले मैंने खुद एक लंबी, थकाने वाली यात्रा रायपुर से सरगुजा तक की। रायपुर से रेल से चला, रात रायगढ़ रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में काटी, अगली सुबह चार बजे की बस से अंबिकापुर। उन दिनों वहां जो संवाददाता थे, वे बिलकुल बेपरवाह थे।  मेरे प्राध्यापक आदरणीय रणवीर सिंह शास्त्री की सहधर्मिणी श्रीमती स्नेहलता शास्त्री बस में मिल गईं थीं। उनका मायका अंबिकापुर में था। वे स्नेहपूर्वक मुझे अपने घर ले गईं तो घर का चाय-नाश्ता मिल गया। अंबिकापुर में दिन भर घूमने के बाद भी हाथ खाली रहे। निराश होकर देर शाम की बस से पत्थलगांव आया। वहां से रायगढ़ लौटने का कोई प्रबंध नहीं हुआ तो कड़ाके की ठंड में पीडब्ल्यूडी रेस्ट हाउस में रात गुजारी। लौटती यात्रा में खरसिया, बाराद्वार, सक्ती, चांपा में एक-एक दिन रुका। छत्तीसगढ़ के इन छोटे-छोटे नगरों से इस तरह परिचय लाभ हुआ।
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#देशबंधु में 10 अक्तूबर 2019 को प्रकाशित
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प्रस्तुति : डॉ शरद सिंह

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