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देशबन्धु के साठ साल-10 - ललित सुरजन

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Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय मित्रो एवं सुधी पाठकों,

   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की टिप्पणी सहित लेखमाला की  आठवीं कड़ी....

देशबन्धु के साठ साल-10
- ललित सुरजन
 
Lalit Surjan
''अकाल उत्सव समाप्त हो गया",
अप्रैल 1980 में प्रथम पृष्ठ पर एक सप्ताह तक छपी रिपोर्टिंग श्रृंखला का यही मुख्य शीर्षक था। बीते साल छत्तीसगढ़ में अकाल पड़ा था। इधर इंदिरा गांधी दुबारा प्रधानमंत्री बनकर लौट आई थीं।  केंद्र की जनता पार्टी सरकार को तो मतदाता ने नकार ही दिया था; राज्यों में भी जनता पार्टी की सरकारें बरखास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया था। मध्यप्रदेश भी उन राज्यों में एक था। छत्तीसगढ़ में अकाल की स्थिति को देखते हुए सरकार ने राहत कार्य प्रारंभ कर दिए थे। इंदिरा जी 23 मार्च को एक दिन के हवाई दौरे पर राहत कार्यों का निरीक्षण करने छत्तीसगढ़ आईं। उनका दौरा भारी व्यस्त था। एक दिन में नौ स्थानों पर जाने का कार्यक्रम था। हमने अपने सभी वरिष्ठ साथियों को अलग-अलग स्थान पर कवरेज करने भेजा। मैं स्वयं रायपुर से लगभग 55 कि.मी. दूर संडी बंगला नामक गांव गया। वहां सिंचाई विभाग की एक सौ साल पुरानी निरीक्षण कुटी थी, जिसे बंगला कहा जाता था। इंदिराजी को यहां निकटस्थ जर्वे गांव से गुजरने वाली नहर पर राहत कार्य के अंतर्गत गहरीकरण और गाद निकालने जैसे कामों का स्थल निरीक्षण करना था।

 हम इस तरह भिन्न-भिन्न जगहों पर गए। रायपुर के साथी शाम तक लौट आए। दूरदराज के संवाददाताओं ने फोन पर रिपोर्ट दाखिल कर दीं। यह तो सामान्य बात थी। हमने ठीक एक सप्ताह बाद उन्हीं साथियों को दुबारा राहत कार्यस्थल भेजा। देखकर आएं कि एक सप्ताह बाद क्या स्थिति बनी है। सत्येंद्र गुमाश्ता महासमुंद के पास तालाब गहरीकरण स्थल पर गए थे। उन्होंने लौटकर जो रिपोर्ट बनाई वह 8 अप्रैल को छपी। उसका पहला पैराग्राफ कुछ इस तरह था- ''तालाब  में जाने के लिए एक कोने में बाकायदा पार फूटी हुई थी। इसी रास्ते से होकर श्रीमती गांधी को तालाब के भीतर ले जाया गया था। वहां मिट्टी के भीतर एक गेंदे की माला अभी भी दबी पड़ी थी। उसके पास ही जमीन पर जमे सिंदूर की लाली और कुछ दूरी पर नारियल की टूटी हुई ताजा खोपड़ी।  टीका लगाने और आरती उतारने की याद के लिए यह सब काफी था।"इस एक पैराग्राफ ने ही सरकारी कामकाज की तल्ख  हकीकत सामने रख दी थी। हमने इसी वाक्य के आधार पर मुख्य शीर्षक बना धारावाहिक रिपोर्ट छापना शुरू कर दिया। आर.के. त्रिवेदी राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्यपाल के सलाहकार थे।  बाद में वे केंद्रीय निर्वाचन आयुक्त बने।राज्य का प्रशासन उनके ही जिम्मे था। वे इस रिपोर्ट को पढ़कर बेहद खफा हुए। उन्होंने दिल्ली दरबार तक शिकायत की। लेकिन जिन तक शिकायत गई, वे त्रिवेदीजी के मुकाबले देशबन्धु को बेहतर जानते थे। बात वहीं खत्म कर दी गई।

जिस एक समाचार ने हमें अपने पत्रकार कर्म की सार्थकता के प्रति आश्वस्त किया और जो  हमारे लिए गहरे संतोष का कारण बनी, वह 29 फरवरी 1992 को प्रकाशित हुई थी। इस भीतर तक हिला देने वाले समाचार को सरगुजा के तत्कालीन ब्यूरो प्रमुख कौशल मिश्र ने भेजा था। आदिवासी बहुल सरगुजा अंचल की एक दूरस्थ पहाड़ी बसाहट में रिबई पंडो नामक आदिवासी के पोते बाबूलाल की भूख के चलते अकाल मृत्यु हो गई थी। एक-दो दिन बाद इस बच्चे की मां ने भी भूख से दम तोड़ दिया। इनके अंतिम संस्कार के लिए रिबई को अपनी दो एकड़ जमीन दो सौ रुपए में गिरवी रखना पड़ी।  खबर छपते ही जिला प्रशासन तो क्या राज्य सरकार और केंद्र सरकार तक हरकत में आई।  जिला प्रशासन ने जैसा कि अमूमन होता है खबर पर लीपापोती करने की कोशिश की। आनन-फानन में रिबई पंडो की झोपड़ी में अनाज पहुंचा दिया गया। देशबन्धु पर गलत खबर छापकर सनसनी फैलाने का आरोप भी लगाया गया, लेकिन सच्चाई सामने आ चुकी थी और उसे दबाना मुमकिन नहीं था। सच्चाई जानने प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव  मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा के साथ 7 अप्रैल 1992 को सरगुजा पहुंचे।

सरगुजा की यह खबर तो एक त्रासदी घटित हो जाने के बाद प्रकाशित हुई, लेकिन हमारे संवाददाता खेमराज देवांगन एक ऐसी रिपोर्ट लेकर आए, जिसने तीन ग्रामीण महिलाओं को प्रताडि़त होने से बचा लिया। यह समाचार 20 नवंबर 2001 के अंक में प्रकाशित हुआ। वैसे तो हिंदीभाषी क्षेत्र में स्त्री अधिकारों के मामले में छत्तीसगढ़ अन्य राज्यों से काफी बेहतर स्थिति में है, लेकिन टोनही की सामाजिक कुप्रथा से प्रदेश पूरी तरह मुक्त नहीं हो सका है। देखा गया है कि किसी बेसहारा, अशक्त, अक्षम महिला पर टोनही (डायन) होने का आरोप लगाकर समाज उसे कई तरीकों से प्रताडि़त करता है। उसे जात बाहर कर देते हैं। गांव से बाहर भी निकाल देते हैं।  फिर उसकी संपत्ति पर रिश्तेदार या कोई और कब्जा जमा लेते हैं। उपरोक्त रिपोर्ट छपने  के कोई दो-तीन सप्ताह पहले ही एक अन्य गांव में कुछ महिलाओं को टोनही के आरोप में निर्वस्त्र कर गांव की गलियों में घुमाया गया था। इस बीच हमारे संवाददाता को सूचना मिली कि रायपुर से कुछ ही किलोमीटर दूर स्थित बेंद्री गांव में इसी तरह का षडय़ंत्र रचा जा रहा है। खेमराज ने उस गांव जाकर पूरे मामले को समझा और विस्तारपूर्वक रिपोर्ट प्रकाशित की। समाचार का शीर्षक था-''उन्हें आज साबित करना होगा वे टोनही नहीं हैं।"समाचार की प्रशासन तंत्र में अनुकूल प्रतिक्रिया हुई। फौरी कदम उठाए गए और एक अनहोनी होते-होते टल गई। इस रिपोर्ट पर खेमराज देवांगन को स्टेट्समैन का प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ।

1980-81 में ही प्रकाशित एक रिपोर्ट इन सबसे अलग मिजाज़ की थी और उसके बनने का किस्सा भी दिलचस्प है। रायपुर के ही एक अन्य अखबार में पाठकों के पत्र स्तंभ में एक चार पंक्तियों का संक्षिप्त पत्र छपा- लुड़ेग के बाज़ार में आदिवासी टमाटर लेकर आते हैं और शाम होते-होते औने-पौने दाम पर बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं। मैंने अपने एक सहयोगी गिरिजाशंकर को कहा कि वे लुड़ेग जाएं और पूरी रिपोर्ट तैयार करें। गिरिजा उसी रात निकल पड़े। रायपुर से रायगढ़ ट्रेन से, वहां से बस-ट्रक जो मिले उससे लुड़ेग- रायपुर से लगभग साढ़े तीन सौ कि.मी. दूर मुख्य मार्ग से कटकर, जशपुर जिले का एक आदिवासी ग्राम।  दो दिन बाद लौटकर वे जो रिपोर्ट लाए, वह चौंका देने वाली थी। दो रुपए में पचास किलो टमाटर! आदिवासी अंचल में टमाटर की फसल बहुतायत से होती है। बांस की टोकरियों में भर कई-कई कि.मी. पैदल चलकर आदिवासी लुड़ेग के बाज़ार आते हैं। दिन भर उनका माल कोई नहीं खरीदता। जानबूझ कर। दिन ढलते जब घर जाने का समय हो जाए तो क्या करें? क्या वापिस उतना बोझ लादकर लौटें? तब रांची आदि स्थानों से आए बिचौलिए उनकी मजबूरी  का लाभ उठाकर पानी के भाव टमाटर खरीद लेते हैं। जिस दिन यह खबर छपी, उसी दिन नवनियुक्त मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह रायगढ़ जिले के प्रथम प्रवास पर पहुंचे थे। उन्होंने समाचार देखकर तुरंत कार्रवाई की। घोषणा की कि रायगढ़ जिले में टमाटर आधारित कृषि उद्योग की स्थापना की जाएगी। घोषणा के बाद सरकारी स्तर पर कुछ दिनों तक हलचल होती रही, फिर उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
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#देशबंधु में 12 सितंबर 2019 को प्रकाशित
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(प्रस्तुति: डाॅ शरद सिंह)

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