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देशबन्धु के साठ साल-7- ललित सुरजन

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Dr (Miss) Sharad Singh
प्रिय ब्लाॅग मित्रो एवं सुधी पाठकों,
   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।

ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 

प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की टिप्पणी सहित लेखमाला की  सातवीं कड़ी....

Lalit Surjan
देशबन्धु के साठ साल-7
- ललित सुरजन
कुछ ज्ञान-कुछ विज्ञान देशबन्धु का एक लोकप्रिय साप्ताहिक स्तंभ था। इसकी परिकल्पना प्रो. वी.जी. वैद्य ने की थी। नामकरण भी उन्होंने ही किया था। प्रो. वैद्य रायपुर के शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय (अब एनआईटी) में रसायनशास्त्र के प्राध्यापक थे। आम अध्यापकों के विपरीत उनकी लिखने-पढ़ने में दिलचस्पी थी; वे कैंपस के बाहर की हलचलों में भी दिलचस्पी रखते थे; और खाली समय में भी व्यस्त रहने के कारण निकाल लेते थे। रिटायरमेंट के बाद उन्होंने रविशंकर वि.वि. में छात्रों के लिए फोटोग्राफी की निशुल्क कक्षाएं संचालित कीं। कुछ साल बाद वे पुणे चले गए तो वहां तर्कर्तार्थ लक्ष्मण शास्त्री जोशी की मराठी विश्वकोष परियोजना से जुड़ गए। उन्होंने प्रसिद्ध वैज्ञानिक जयंत नार्लीकर व लेखक लक्ष्मणराव लोंढे की अनेक मराठी विज्ञान कथाओं का हिंदी अनुवाद देशबन्धु के लिए किया। फिर स्वयं भी हिंदी में विज्ञान कथाएं लिखने लगे, जिसका पुस्तक रूप में प्रकाशन नेशनल बुक ट्रस्ट ने किया। प्रसंगवश, वैद्य साहब के भाई एम.जी. वैद्य भोपाल में प्रतिष्ठित पत्रकार थे, भाभी श्रीमती शकुंतला वैद्य रूसी भाषी की कक्षाएं संचालित करती थीं और इंदौर के सीपीआई नेता अनंत लागू उनकी पत्नी के भाई थे।

सुप्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डॉ. रमेशचंद्र महरोत्रा का चलते-चलते उल्लेख पिछले अध्याय में हुआ है। एक ओर अपने विषय के अधिकारी विद्वान; दूसरी ओर अद्भुत सादगी। वे साधारण सा कुर्ता-पाजामा पहनते थे और साईकिल पर चलते थे। उन्हें अपने पांडित्य पर लेशमात्र भी गर्व नहीं था और धन-दौलत का मोह उन्होंने कभी नहीं पाला। एक बार कार खरीद ली तो वह भी इकलौती संतान बेटी संज्ञा को दे दी। घर-गिरस्ती उन्होंने भाभी श्रीमती उमा महरोत्रा के जिम्मे छोड़ रखी थी, जो इप्टा से जुड़ी रहीं और सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में भी उत्साहपूर्वक भाग लेती रहीं। इस दम्पति ने समाज हित में अनेक काम किए और एक के बाद दोनों की पार्थिव देहें रायपुर मेडिकल कॉलेज को दान कर दी गईं। महरोत्राजी व्यंग्य कविताएं भी लिखते थे, जो मुझे कभी पसंद नहीं आईं। वे अपने ''दो शब्द कॉलम में कोई दो शब्द उठाकर उसकी सविस्तार व्याख्या करते थे। यह स्तंभ अनेक वर्षों तक चला। हिंदी भाषा के प्रति प्रेम व रुचि जागृत करने की यह एक अनूठी पहल थी।

समय-समय पर देश की अनेक मूर्धन्य हस्तियों ने देशबन्धु में कॉलम लिखे। इनमें इंद्रकुमार गुजराल, विजय मर्चेंट, जयंत नार्लीकर, के.एफ. रुस्तमजी, अरुण गांधी के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं। गुजराल साहब का आशीर्वाद और स्नेह हमें अंत तक मिलता रहा। 7 अप्रैल 2008 को देशबन्धु के दिल्ली संस्करण के उद्घाटन पर वे ही मुख्य अतिथि थे। उन्होंने अपने विशाल पुस्तक संग्रह का एक भाग देशबन्धु लाइब्रेरी को भेंट भी किया। वे सामान्यत: अन्तरराष्ट्रीय राजनीति पर अंग्रेजी में लिखते थे, जिसका अनुवाद हमें करना होता था। उपरोक्त सभी महानुभावों के साथ भी यही बात थी। मई-जून 2003 में मुझे डाक से एक मोटा लिफाफा मिला। भीतर एक लेख के साथ साइरस रुस्तमजी का लिखा एक पत्र था- ''मैं के.एफ. रुस्तमजी का पुत्र हूं। वे आपके अखबार के लिए लिखते थे। उनके कागजात में उनका यह आखिरी लेख मिला है, जिसे वे समय रहते आपको भेज नहीं पाए। संभव हो तो इसका उपयोग कर लीजिए। अंग्रेजो में लिखे पत्र का भाव यही था। महात्मा गांधी के पौत्र अरुण गांधी उन दिनों भारत में ही पत्रकारिता कर रहे थे और उन्होंने भी अपने लेख छापने के लिए सरलता से हामी भर दी थी। अरुण अब अमेरिका में रहते हैं। पिछले साल उनकी पुस्तक आई है- द गिफ्ट ऑफ एंगर। यह पुस्तक बापू के साथ बीते समय में हासिल अनुभवों पर आधारित है। इसमें बापू के जीवन दर्शन की सरल-सुबोध व्याख्या की गई है।

हमारे लेखकों की सूची में एक उल्लेखनीय नाम प्रो. एस.डी. मिश्र का है। वे रायपुर के शासकीय विज्ञान म.वि. में गणित के प्राध्यापक थे और 1964 में तबादले पर अन्यत्र चले गए थे। लेकिन एक गुणी अध्यापक के रूप में उनकी चर्चा उनके पूर्व छात्रों के बीच अक्सर होती थी। प्रो. मिश्र ने 92-93 साल की उम्र में अपने संस्मरण लिपिबद्ध करना प्रारंभ किया। यह अपने आप में अचरज की बात थी। उनके सुपुत्र डॉ. परिवेश मिश्र ने जब ये संस्मरण मुझे दिखाए तो मैं चकित रह गया। ऐसी सुंदर भाषा, ऐसे रोचक विवरण! गुजरे समय और स्थानों को उन्होंने जीवंत कर दिया। हमने दो बार में उनके संस्मरण 26-26 किश्तों में छापे। पहले ''ग्राउंड जीरो से उठी यादें; फिर बेमेतरा से बैरन बाज़ार तक। मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि हिंदी में ऐसे संस्मरण लिखने वाले लेखक बिरले ही होंगे। रायपुर, नागपुर, भोपाल, दमोह इत्यादि अनेक स्थानों पर, यहां तक कि विदेशों में बसे उनके छात्र इन संस्मरणों को खोज-खोज कर पढ़ते। हमसे संपर्क कर उनका पता-फोन नंबर लेते और उनसे बात करते। संस्मरण लिपिबद्ध करने के कुछ समय पहले ही उनकी जीवन संगिनी का निधन हुआ था। लेकिन संस्मरण पढ़ने के बाद उनके छात्रों-मित्रों-परिचितों ने जब उनसे संपर्क किया तो उनका अकेलापन कुछ हद तक दूर हुआ।

डॉ. जयंत नार्लीकर रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के निमंत्रण पर तीन दिन के लिए रायपुर आ रहे थे। इंग्लैंड से लौटने के बाद उन्होंने विज्ञान के लोकव्यापीकरण को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था। मैं उनका तब से प्रशंसक था जब वे 1960 के दशक में कैंब्रिज में फ्रेड हॉयल के साथ खगोलशास्त्र पर शोध कर रहे थे और अन्तरराष्ट्रीय ख्याति हासिल कर चुके थे। उनका रायपुर आना हमारे लिए एक बड़ी खबर थी। हमने नार्लीकरजी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक पूरे पेज की विशेष सामग्री प्रकाशित की और तीनों दिन उनके व्याख्यानों को प्रमुखता के साथ छापा। इसी समय लगे हाथ उनके अंग्रेजो लेखों को अनुवाद कर छापने की अनुमति भी मांग ली, जो सहर्ष मिल गई। महान क्रिकेट खिलाड़ी विजय मर्चेंट ने तो अंतरर्देशीय पत्र पर उनके लेख छापने की अनुमति प्रदान की थी। इन सबके लेख नई-नई जानकारियों से भरे होते थे; पाठकों का ज्ञान उनसे बढ़ता था और अखबार की प्रतिष्ठा में भी वृद्धि होती थी। यह तथ्य उल्लेखनीय है कि इनमें से किसी ने भी हमसे न पारिश्रमिक की अपेक्षा की और न मांग की।

जयंत नार्लीकर के प्रथम रायपुर आगमन पर हमने जैसी विशेष सामग्री प्रकाशित की थी, बिलकुल उसी तरह हमने विश्वविख्यात सितारवादक रविशंकर का भी अभिनंदन किया। इस तरह विभिन्न अवसरों पर विशेष परिशिष्ट प्रकाशित करने की एक परंपरा ही देशबन्धु में स्थापित हो गई। याद आता है सितंबर 1979 में ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम भारत दौरे पर आई थी। तब हमने कुछ सप्ताह पूर्व ही ऑफसेट मशीन पर छपाई प्रारंभ की थी। बहुमुखी प्रतिभासंपन्न लेखक-कवि-बैंक अधिकारी ओम भारती उन दिनों रायपुर में पदस्थ थे।ओम की क्रिकेट में भी खासी दिलचस्पी थी। उन्होंने क्रिकेट पर टैब्लाइड आकार में बत्तीस पेज के एक विशेषांक की योजना प्रस्तावित की। भारत में क्रिकेट की जैसी लोकप्रियता है, उसे देखते हुए कहना न होगा कि देशबन्धु का यह क्रिकेट विशेषांक अत्यन्त लोकप्रिय हुआ और हमें अंक दुबारा छापना पड़ा। इस अंक की बहुत सारी प्रतियां लेकर ओम नागपुर भी गए, जहां एक मैच होना था। वहां वीसीए स्टेडियम में देशबन्धु की धूम मच गई। उसी दौर में हमने शतरंज पर एक साप्ताहिक स्तंभ शुरू किया। किसी हिंदी दैनिक में यह शायद अपनी तरह का पहला कॉलम था! इसे मुजाहिद खान तैयार करते थे, जो शायद रायपुर तहसील कार्यालय में कार्यरत थे। छत्तीसगढ़ में शतरंज का खेल लोकप्रिय हो चला था, जिसे आगे बढ़ाने में देशबन्धु ने भी एक छोटी सी भूमिका निभाई।
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देशबंधु में 22 अगस्त 2019 को प्रकाशित
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(प्रस्तुति: डाॅ शरद सिंह)

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