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देशबन्धु के साठ साल-5 - ललित सुरजन

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Dr Sharad Singh
प्रिय ब्लाॅग मित्रो एवं सुधी पाठकों,

   हिन्दी पत्रकारिता जगत में श्रद्धेय स्व. मायाराम सुरजन जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले आदरणीय ललित सुरजन ‘‘देशबंधु के साठ साल’’ के रूप में एक ऐसी लेखमाला लिख रहे हैं जो देशबंधु समाचारपत्र की यात्रा के साथ हिन्दी पत्रकारिता की यात्रा से बखूबी परिचित कराती है। व्हाट्सएप्प पर प्राप्त लेखमाला की कड़ियां मैं यानी इस ब्लाॅग की लेखिका डाॅ. शरद सिंह उनकी अनुमति से अपने इस ब्लाग पर शेयर करती रहूंगी। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपको भी यह लेखमाला अत्यंत रोचक लगेगी।


ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं। वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं। वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है। 


प्रस्तुत है ललित सुरजन जी की टिप्पणी सहित लेखमाला की  पांचवीं कड़ी....


Lalit Surjan
देशबन्धु के साठ साल-5

- ललित सुरजन


बापा! आज फिर जरूरत पड़ गई है। इंग्लैंड से मोनोटाइप मशीन ला रहे हैं। मार्जिन मनी का इंतजाम नहीं है।

- ये क्या मशीन है? क्यों खरीद रहे हो? किस काम आएगी? कितनी कीमत है?

- इस मशीन से कंपोजिंग होगी। एक शिफ्ट में आठ आदमियों के बराबर काम करेगी।

- मतलब तुम सात लोगों को नौकरी से निकाल दोगे?

- नहीं बापा। मशीन पर दो आदमी काम करेंगे। और हम पेज संख्या बढ़ा रहे हैं। निकालेंगे किसी को नहीं, बल्कि अपने लोगों को उस पर ट्रेनिंग देंगे। उनका वेतन बढ़ जाएगा और पेपर भी ज्यादा अच्छा निकलेगा।

- ठीक है। रकम ले जाओ। लेकिन किसी को हटाना मत।

बापा और बाबूजी के बीच यह संवाद मई-जून 1969 में किसी दिन हुआ। मैं श्रोता की हैसियत से उपस्थित था। बापा याने रूड़ाभाई वालजी सावरिया, जिन्हें रायपुर में रूड़ावाल सेठ के नाम से जाना जाता था। वे साहूकार थे और नहरपारा में उनके स्वामित्व की महाकौशल फ्लोर मिल की अरसे से बंद पड़ी इमारत को हमने एक साल पहले ही फ्लैटबैड रोटरी मशीन आने के साथ किराए पर लिया था। यह कोई पचास साल पुरानी, मोटी दीवालों, इमारती लकड़ी के फर्श और टीन की छत वाली तीन मंजिला, तीन हॉल की इमारत थी। इसे किराए पर लेने में कांग्रेस नेता मन्नालाल शुक्ल ने हमारी सहायता की थी। वे नगरपालिका के पूर्व उपाध्यक्ष एवं उस समय विधानसभा सदस्य थे।

मेरे दादाजी की उम्र के बापा एक दिलचस्प व्यक्ति थे। उन्होंने व उनके सुपुत्र कांतिभाई ने गाढ़े वक्तों में कई बार हमें सहायता दी और कभी खाली हाथ नहीं लौटाया। जब ग्यारह वर्ष बाद हम स्वयं के भवन में आए, तब न जाने कितने माहों का किराया बाकी था जो हमने धीरे-धीरे कर चुकाया। बापा थे तो साहूकार, लेकिन उनके संस्कार गांधीवादी थे। नहरपारा की उसी गली में वे स्वयं जहां रहते थे, वह पुरानी शैली का साधारण दिखने वाला मकान था, जिसमें साज-सजावट की आवश्यकता उन्हें कभी महसूस नहीं हुई। एक दिन प्रेस परिसर में एक फियेट कार आकर खड़ी हो गई। तीनेक माह खड़ी रही। हमारे पास तब कार नहीं थी। बाबूजी ने बापा से निवेदन किया कि यह कार हमें मिल जाए। किश्तों में पैसा चुका देंगे। बापा का उत्तर अनपेक्षित था। जिसकी कार है, वह तकलीफ़ में है। ईमानदार आदमी है। जिस दिन हालत सुधरेगी, कर्ज की रकम चुकाकर गाड़ी ले जाएगा। गाड़ी बेचकर उसकी इज्ज़त नहीं उतारूंगा। तकरीबन छह माह बाद वैसा ही हुआ। यह बीते समय की व्यवसायिक नैतिकता का एक उदाहरण है। बापा जैसे लोग शायद तब भी अपवाद ही थे। मोनो मशीन की चर्चा करते-करते यह अवांतर प्रसंग ध्यान आ गया।

इसी सिलसिले में एक और रोचक वाकया घटित हुआ। दुर्ग के ब्यूरो प्रमुख धीरज भैया दफ्तर आए। उनके साथ एक सज्जन और थे। परिचय कराया- ''ये राजनांदगांव के कन्हैयालाल शर्मा हैं। दुर्ग में बैंक ऑफ महाराष्ट्र में अकाउंटेंट हैं। अपने पेपर के मुरीद हैं। मोनो मशीन आयात करने में इनका बैंक अपनी मदद करेगा। शर्माजी ने शाखा स्तर पर सारी औपचारिकताएं रुचि लेकर पूरी करवाई। नागपुर जोनल ऑफिस तक जाकर प्रस्ताव पुणे मुख्यालय अंतिम स्वीकृति हेतु भिजवा दिया। हमारी तवालत बची। इसी बीच बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो गया। बैंकों का सारा कारोबार कुछ समय के लिए एक तरह से स्थगित हो गया। हमारा आवेदन भी ठंडे बस्ते में चला गया। एक बार फिर हमें अप्रत्याशित रूप से मदद मिली। संघ के मराठी मुखपत्र ''तरुण भारत के प्रबंध संचालक भैया साहेब खांडवेकर से बाबूजी का पुराना परिचय था। बाबूजी ने मुझे पत्र देकर उनके पास नागपुर भेजा। भैया साहब ने बैंक के चेयरमैन से बात की और उनसे मिलने मुझे पुणे भेज दिया। मैं चेयरमैन से मिला। उन्होंने पांच-सात मिनट में मुझसे प्रकरण समझा और अधिकारों का प्रयोग करते हुए ऋण प्रस्ताव को तुरंत स्वीकृति दे दी। यथासमय दो मशीनें लंदन से रायपुर आ गईं।

मशीनें आ गईं। उनको चलाने वाले दक्ष सहयोगी भी तैनात हो गए। पुराने लोगों को प्रशिक्षण भी मिल गया। लेकिन मशीन तो मशीन है। नई हो तब भी कभी तो बिगड़ेगी ही और रिपेयरिंग की आवश्यकता भी होगी। मोनोटाइप कंपनी के कलकत्ता (अब कोलकाता) ऑफिस से मैकेनिक बुलाना महंगा पड़ता था, आने-जाने में समय भी लगता था। वक्त पर मैकेनिक न आए तब क्या किया जाए? ऐसे में धीरज भैया ने ही एक और सज्जन को ढूंढ निकाला। भिलाई इस्पात संयंत्र के प्रेस में श्री अवस्थी नामक सज्जन मोनो मैकेनिक का काम कर लेते थे। हमें जब भी जरूरत पड़े, धीरज भैया रात-बिरात स्कूटर पर बैठाकर उन्हें भिलाई से रायपुर ले आते थे। अवस्थीजी देशबन्धु परिवार के अतिथि सदस्य बन गए। एक समय वह भी आया जब उन्होंने भिलाई में देशबन्धु की एजेंसी ले ली और इस्पात नगरी में अखबार का प्रसार बढ़ाने में भूमिका निभाई। मैं यहां मोनोटाइप मशीन से जुड़े दो अन्य व्यक्तियों का भी उल्लेख करना चाहता हूं।

मोनोटाइप मशीन में अक्षर ढालने के लिए एक मैट्रिक्स (Matrix) या सांचा होता है। पीतल से बने इस सांचे में सारे अक्षर व चिह्न उत्कीर्ण होते हैं, जो सीसे में ढलकर आकार ग्रहण करते हैं। यह सांचा चार-छह माह से अधिक नहीं चलता। अर्थात छठे-छमासे इंग्लैंड से नया सांचा मंगाना पड़ता था, जिसकी कीमत उस समय चालीस हजार रुपए के करीब थी। मेरे कॉलेज जीवन के साथी और पारिवारिक मित्र महेंद्र कोठारी यहां सामने आए। कैमिकल इंजीनियर महेंद्र ने अपने कारखाने में यह सांचा बनाने का प्रयोग किया और काफी हद तक सफल हुए। उनके बनाए सांचे की कीमत पड़ी लगभग ढाई हजार रुपए। यह सांचा तीन माह तक ठीक से चलता था। महेंद्र ने फिर देश में कई हिंदी अखबारों को अपनी बनाई मैट्रिक्स बेची। वैसे इसमें उन्हें कोई खास मुनाफा नहीं हुआ। लेकिन ध्यान आता है कि ''मेक इन इंडिया का प्रयोग आज से पचास साल पहले एक युवा इंजीनियर ने सफलता से कर दिखाया था।

मैंने पहले की एक किश्त में बताया था कि फ्लैटबैड रोटरी मशीन में न्यूज प्रिंट याने अखबारी कागज के पत्ते की बजाय रील या रोल का इस्तेमाल होता था। रायपुर रेलवे स्टेशन पर मुंबई-कोलकाता से वैगन में रोल आते थे। उन्हें वैगन से उतारना, मालधक्के से प्रेस तक लाना मेहनत और सूझबूझ का काम था। बैलगाड़ी में तीन रोल चढ़ाए और उतारे जाते थे। नहरपारा से लगे लोधीपारा के ही भरत नामक युवा मालधक्के पर हमाली करते थे। उनकी एक टीम थी जो हमारे लिए कागज के रोल मालधक्के से प्रेस गोदाम तक लाने में जुटती थी। इसी टीम ने हमारी छपाई मशीनों को भी जब मौका आया ट्रकों से उतार कर मशीन रूम में ले जाने तक का काम बेहद सावधानी व कुशलता के साथ किया। मोनो मशीनों को भी स्थापित करने का काम भरत के ही जिम्मे था। मेरे हमउम्र भरत स्वयं बहुत मेहनती थे। वे टीम को निर्देश देने में भी सक्षम और अपने काम के प्रति बेहद जिम्मेदार थे।

अब तक की कड़ियों को पढ़कर पाठकों ने अनुमान कर लिया होगा कि अखबार को चलाने में कितने सारे जनों की, विविध स्तरों पर प्रत्यक्ष और-परोक्ष भूमिका निभाना होती है।

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#देशबंधु में 01 अगस्त 2019 को प्रकाशित

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